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एक राष्ट्र एक निर्वाचन

चुनाव भारत के बडे त्योहार जैसे बन गए हैं। कई राज्यों में धांधली बूथ कैप्चरिंग, मतदाताओं के लिए खतरा और बडी संख्या में निर्वाचन क्षेत्रों में हिंसा इन चुनावो की विशेषता बन गई है। चुनाव सुधारों की आवश्यकता को सभी राजनीतीक दलों ने स्वीकार किया है और इस संबंध में कई सुझाव दिए गए है।

इन्ही सुझाव के अंतर्गत प्रधानमंत्री ने" एक राष्ट्र एक निर्वाचन " का आह्वाहन किया।
हाल ही में केन्द्रीय निर्वाचन आयोग (अनुच्छेद 324) ने राज्य सभा के 57 सीटों पर द्विवार्षिक कार्यक्रमों की घोषणा कर दी है, आगामी वर्ष 2023 में साल भर में छत्तीसगढ समेत 9 राज्यो में चुनाव होना है, 2024 में लोकसभा का चुनाव, और नवम्बर-दिसम्बर 2022 में 2 राज्यों में चुनाव होने है। ज्ञात हो की मार्च 2022 में 5 राज्यों में चुनाव सम्पन्न हो चूका है, इतना ही नहीं कोविड के महामारी के दौरान भी 2021 में 5 राज्यों में चुनाव सम्पन कराया गया।
इस तरह देखा जाये तो देश के किसी-न-किसी क्षेत्र में किसी-न-किसी समय साल भर चुनाव,उपचुनाव जैसा त्यौहार होता ही रहता है। जिसे सम्पन कराने में सरकार तथा निर्वाचन आयोग को बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इसी में कमी लाने की दिशा में एक प्रयास " एक राष्ट्र एक निर्वाचन" हो सकता है।
एक राष्ट्र एक निर्वाचन के बारे में - आदर्श रूप से इसका अर्थ सांवैधानिक संस्थाओ के तीनों स्तरों का निर्वाचन एक साथ होना है, इसका तात्पर्य है की मतदाता एक ही दिन में सरकार के सभी स्तरों के लिए सदस्यों के निर्वाचन हेतु मतदान कर सकता है।
हालांकि, संविधान के तीसरे स्तर के संस्थाओ( ग्राम पंचायत, जनपद पंचायत, व जिला पंचयत) का निर्वाचन राज्य के अधिकार क्षेत्र में आता है, जिसे राज्य निर्वाचन आयोग निर्देषित तथा नियंत्रित करता है, जिसकी संख्या देश में काफी ज्यादा है। जिसे लोकसभा और विधानसभा के निर्वाचनों के साथ समन्वित और संरेखित करना अव्यवहारिक है।
तदनुशार, भारतीय निर्वाचन प्रक्रिया में "एक राष्ट्र एक निर्वाचन" शब्द लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के निर्वाचन एक साथ कराने के रूप में परिभाषित किया गया है।
इसका यह अर्थ नहीं कि पुरे देश में लोकसभा और विधानसभाओँ  के लिए मतदान एक ही दिन में होना चाहिए। यह मौजूदा परम्परा के अनुसार चरण बद्ध तरीके से होना चाहिए अर्थात एक मतदाता एक ही दिन और एक ही समय में लोकसभा और विधानसभा के सदस्यों के निर्वाचन के लिए मतदान कर सकेगा।

एक राष्ट्र एक निर्वाचन की आवस्यकता क्यों?

●निति और शासन न्यूनता - साल भर निर्वाचन में राजनेताओं की व्यस्तता के कारण वे निर्णय निर्धारण कार्यो के बजाय, निरंतर चुनाव-अभियानों में व्यस्त रहते है, नियमित प्रशासनिक गतिविधियों को छोड़कर अन्य विकास कार्यक्रम, कल्याणकारी योजनाएँ, पूंजीगत परियोजनाएं आदि, आदर्श आचार संहिता लागु होने तक बड़े पैमाने पर निलंबित होते है। जो निति और शासन न्यूनता का कारण बनता है।
●निर्वाचन पर व्यय- 2019 में हुए लोकसभा चुनाव के बाद 'सेंटर फॉर मिडिया स्टडीज़' (SMS) चुनावी खर्चे को लेकर एक रिपोर्ट जारी की जिसमे 2019 में हुए लोकसभा चुनाव दुनिया में हुए किसी भी चुनाव में सबसे महंगा चुनाव था। जिसमे लगभग 60 हजार करोड़ रूपए खर्च हुए। जिसमें 3500 करोड़ की नगदी/सामान जब्त हुए, 1300 करोड़ के ड्रग्स, 839 करोड़ रूपए की नगदी, 294 करोड़ रूपए की शराब , 986 करोड़ रूपए की सोना चांदी, और 58 करोड़ के अन्य सामान शामिल थे। यह मात्र एक लोकसभा के चुनाव में हुए खर्च है, इसी तरह वर्तमान में देश में 28 राज्यों के चुनावो में कितना होता होगा यह अकल्पनीय है, आखिर करदाताओं का पैसा जो देश के विकास में खर्च होने चाहिए, उसका एक बड़ा हिस्सा साल भर होने वाले चुनाव में खर्च किया जाता है।
अगर चुनाव एक साथ हुए तो इसपे होने वाले खर्च को केंद्र तथा राज्य सरकार आपस में साझा कर सकती है।
●सुरक्षा बलों की न्युक्ति- निर्वाचन आयोजित करना एक विशाल, जटिल और समय लेने वाली गतिविधि है। निर्वाचन आयोग सुचारू, शांतिपूर्ण और निष्पक्ष निर्वाचन सुनिश्चित करने के लिए मतदान अधिकारियों के साथ-साथ सशस्त्र बलों की भी बडी संख्या में मदद लेता है।बार-बार निर्वाचन होने से CAPF और राज्य पुलिस बल लंबे समय तक अपने मूल कर्तव्यों से विलग हो जाते हैं।
●अदृश्य और अकल्पनीय सामाजिक-आर्थिक लागत- निर्वाचन ड्यूटी के कारण प्रत्येक निर्वाचन के दौरान स्कूल तथा कॉलेजो के शिक्षकों को, पूरी मशीनरी तथा अधिकारियों और वाहनों को निर्वाचन सम्बंधी कार्यो में लगा दिया जाता है।
●बार बार होने वाले निर्वाचन से देश भर में जाति, धर्म और साम्प्रदायिक मुद्दों को भी जीवित रखते है।
● एक संसदीय स्थायी समिति का मानना है कि, एक साथ निर्वाचन होने पर इससे बार-बार होने वाली निर्वाचनों के प्रति मतदाताओं की उदासीनता कम होगी और आम जनता, विशेष रूप से मतदाताओं का उत्साह बढ़ेगा जो अंततः चुनावी प्रक्रिया में मतदाताओं की भागीदारी को बढ़ाएगा

एक राष्ट्र एक निर्वाचन से जुडी चिंताएँ:-

●संवैधानिकता का सवाल- लोकसभा और विधानसभा के कार्यकाल को पहली बार कैसे समन्वित किया जायेगा और क्या एक राष्ट्र और एक निर्वाचन को सुविधाजनक बनाने के लिए कुछ विधानसभाओ के मौजूदा कार्यकाल का विस्तार करना या फिर उसमे कटौती करना व्यवहार्य होगा।
●इसके अलावा प्रत्येक राज्य की अपनी शक्ति गतिशीलता होती है और बार-बार इसे लंबे समय तक के लिए राष्ट्रपति शासन का सहारा लिए बिना केंद्र के समान कार्यकाल  वाली विधानसभाओं के कार्यकाल को बनाए रखना मुश्किल होगा।
●किसी लोकतंत्र और संघवाद में अगर सरकार अपना बहुमत खो देती है, या फिर अविश्वास मत पारित हो जाता है या किसी राज्य में रास्ट्रपति शासन लागु हो जाता है ऐसी स्थिति में किसी राज्य या केंद्र के निर्वाचन कैलेंडर को समकालीन बनाना मुश्किल हो जायेगा।
●इसमें क्षेत्रीय दलों को नुकसान हो सकता है, केंद्र की राजनितिक दल की प्रभावी स्थिति राज्य स्तर पर उसे लाभ प्रदान कर सकती है।
● प्रत्येक 5 वर्ष में एक से अधिक बार मतदाताओं के सामने आना राजनेताओं की जवाबदेही बढ़ाता है और उन्हें अपने कार्य के प्रति गंभीर रखता है।
●मतदाताओं के व्यवहार पर भी प्रभाव पड़ सकता है, राष्ट्रीय मुद्दे राज्य विधानसभा निर्वाचन में मतदान के लिए मतदाताओं के व्यवहार को प्रभावित कर सकते है।
वही राज्य विशिष्ट मुद्दे, लोकसभा के निर्वाचन में मतदान के लिए मतदाताओं के व्यवहार को प्रभावित कर सकता है।

चिंताओं को दूर करने के लिए सरकार द्वारा उढाये जाने वाले कदम:-


●संसदीय स्थायी समिति ने यह सुझाव दिया है कि, दो चरणों में एक साथ चुनाव करानेे पर विचार किया जाये। पहले चरण को लोकसभा निर्वाचन के साथ कराया जाये, तथा दूसरा चरण लोकसभा की अवधि के लगभग बीच में कराने का सुझाव दिया।
●समय से पहले होने वाले विघटन से बचना चाहिए इस संदर्भ में निर्वाचन आयोग ने सिफारिस की है कि, लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के साथ एक विश्वास प्रस्ताव भी शामिल होना चाहिये, जो उस प्रस्ताव में भावी प्रधानमंत्री के रूप में नामित व्यक्ति की अध्यक्षता वाली सरकार के पक्ष में हो।
●यदि लोकसभा व विधानसभा का कार्यकाल विघटन के पश्चात कम समय के लिए बचा है तो लोकसभा की स्थिति में राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त मंत्रिपरिषद की सहायता एवं सलाह से, तब तक देश का प्रसासन चलने का प्रावधान किया जा सकता है जब तक निर्धारित समय पर अगले सदन का गठन नही हो जाता।
वही विधानसभा की स्थिती में, राज्यपाल द्वारा नियुक्त मंत्रिपरिषद के सलाह से प्रशासन चलना या फिर राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए प्रावधान होना चाहिए।
●साल भर में होने वाले उपनिर्वाचन भी एक साथ कराया जाये।

निष्कर्ष:- भारत में आजादी के बाद लोक सभा और राज्य विधान सभा के चुनाव, वर्ष 1951 से 1967 तक एक साथ कराये गए थे। इसलिए समय समय पर निर्वाचन आयोग, संसदीय स्थायी समिति, विधि आयोग तथा निति आयोग द्वारा" एक राष्ट्र एक निर्वाचन" को लागु करने की सिफ़ारिश की है। जिसे ध्यान में रखते हुए सरकार को इसे लागु करने पर विचार करना चाहिए।












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