रिप्रोडक्टिव राइट्स
आसान भाषा में समझें तो रिप्रोडक्टिव राइट्स का मतलब किसी व्यक्ति की रिप्रोडक्शन हेल्थ और इसके फैसले से जुड़ा है। यानी कोई कब प्रेग्नेंट होना चाहता है, अबॉर्शन करना चाहता है, कॉन्ट्रासेप्टिव का इस्तेमाल करना चाहता है, और फैमिली प्लानिंग करना चाहता है। इसमें प्रेग्नेंसी के दौरान जरूरी पोषण और स्वास्थ्य सुविधाएं, प्रेग्नेंसी से पहले महिला-पुरुष दोनों की सहमति जैसी कई दूसरी बातें भी शामिल हैं।
इसके तहत क्या-क्या अधिकार मिले हैं?
- दोनों पार्टनर्स का स्वतंत्र तौर पर और जिम्मेदारी से ये निर्णय लेने का अधिकार कि कितने बच्चे पैदा करना है, कब करना है।
- इसके लिए जरूरी जानकारी और साधनों को जानने का अधिकार।
- रिप्रोडक्टिव राइट्स के तहत शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ होने का अधिकार।
- प्रेग्नेंसी और अबॉर्शन के बारे में बिना किसी भेदभाव या जबर्दस्ती के निर्णय लेने का अधिकार।
- यानी आप कब बच्चे पैदा करेंगे, कितने करेंगे, 2 बच्चों के बीच कितना गैप होगा, कब नसबंदी करवाएंगे, किस तरीके से करवाएंगे ये सभी निर्णय लेने का अधिकार।
भारत में इसको लेकर क्या कानून हैं?
मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट के जरिए विशेष परिस्थितियों में अबॉर्शन की छूट दी जाती है। इसके मुताबिक, अगर किसी महिला को प्रेग्नेंसी की वजह से गंभीर शारीरिक या मानसिक समस्या हो सकती है तो अबॉर्शन की छूट दी जाती है। हालांकि, ये डॉक्टर की सलाह पर ही किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में अबॉर्शन करवाना अपराध नहीं माना जाएगा।
कोर्ट ने कब-कब इस संबंध में फैसले दिए हैं?
- 2017 में पुट्टास्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को लेकर फैसला सुनाया था। 9 जजों की बेंच ने कहा था कि संविधान के आर्टिकल-21 के तहत दिया गया राइट टू लाइफ एंड पर्सनल लिबर्टी में रिप्रोडक्टिव राइट्स एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। किसी भी महिला का रिप्रोडक्टिव राइट उसका संवैधानिक अधिकार है। निजता की श्रेणी तय करते हुए न्यायालय ने कहा कि निजता के अधिकार में व्यक्तिगत रुझान और पसंद को सम्मान देना, पारिवारिक जीवन की पवित्रता, शादी करने का फैसला, बच्चे पैदा करने का निर्णय, जैसी बातें शामिल हैं।
- 2009 में सुचिता श्रीवास्तव vs चंडीगढ़ एडमिनिस्ट्रेशन के मामले में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा था कि सुचिता श्रीवास्तव को प्रेग्नेंसी टर्मिनेट करवाना चाहिए। दरअसल, सुचिता श्रीवास्तव की मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी, इसी आधार पर हाईकोर्ट ने कहा था कि वे होने वाले बच्चे का पालन-पोषण ठीक से नहीं कर पाएंगी। इसलिए प्रेग्नेंसी टर्मिनेट की जाए। हाईकोर्ट ने इसके लिए महिला की सहमति नहीं ली थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भले ही एक महिला की मानसिक स्थिति ठीक नहीं हो, लेकिन इस वजह से उसका रिप्रोडक्टिव राइट नहीं छीना जा सकता। महिला प्रेग्नेंट रहना चाहती है या नहीं इसका फैसला केवल वही ले सकती है।
- 2011 में दिल्ली हाईकोर्ट ने लक्ष्मी मंडल vs दीनदयाल हरीनगर हॉस्पिटल और अन्य और जैतुन vs मेटर्निटी होम जंगपुरा और अन्य के मामले में फैसला सुनाया था। इस मामले में दो महिलाओं के संवैधानिक और रिप्रोडक्टिव राइट के उल्लंघन से संबंधित अलग-अलग याचिकाओं पर कोर्ट ने सुनवाई की थी। कोर्ट ने कहा था कि जब सार्वजनिक स्वास्थ्य की बात आती है, तो किसी भी महिला को, विशेष रूप से गर्भवती महिला को उसकी सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के बावजूद किसी भी स्तर पर इलाज से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।
- source dainik bhaskar
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