AUKUS समझौता
ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने ब्रिटेन और अमेरिका के साथ एक ऐतिहासिक रक्षा समझौता किया है जिसके तहत परमाणु ताक़त से लैस पनडुब्बियों का बेड़ा तैयार किया जाएगा.
ये पनडुब्बियां ऑस्ट्रेलिया के तटीय इलाकों और उसके जल क्षेत्र की सुरक्षा और निगरानी के काम लाई जाएंगी.
'परमाणु युग' की शुरुआत के साथ ही 1940 के दशक में न्यूक्लियर पावर से चलने वाले समुद्री जहाज़ों पर रिसर्च का काम शुरू हो गया था.
उसके बाद से केवल छह देशों के पास ही परमाणु ताक़त से लैस पनडुब्बियों की ताक़त है. ये देश हैं चीन, फ्रांस, भारत, रूस, ब्रिटेन और अमेरिका.
परमाणु ऊर्जा के फ़ायदे और नुक़सान क्या हैं?
परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बी का सबसे बड़ा फ़ायदा ये होता है कि उन्हें फिर से ईंधन लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती है. किसी परमाणु पनडुब्बी को जब ड्यूटी पर उतारा जाता है तो उसमें ईंधन के रूप में यूरेनियम की इतनी मात्रा मौजूद होती है कि वो अगले 30 सालों तक काम करते रह सकती है.
डीज़ल से चलने वाली पारंपरिक सबमरीन की तुलना में परमाणु ऊर्जा से लैस पनडुब्बी लंबे समय तक तेज़ रफ़्तार से काम कर सकती हैं. इसकी एक और ख़ास बात है. पारंपरिक कम्बस्टन इंजन के विपरीत इस पनडु्ब्बी को हवा की ज़रूरत नहीं पड़ती.
इसका मतलब ये हुआ कि एक न्यूक्लियर सबमरीन महीनों तक गहरे पानी में रह सकती है. उसे लंबे सफ़र पर दूरदराज़ के इलाकों में खुफिया अभियानों पर भेजा जा सकता है. लेकिन इसका एक नकारात्मक पहलू भी है. इसकी लागत बहुत ज़्यादा पड़ती है.
एक न्यूक्लियर सबमरीन को तैयार करने में अरबों डॉलर का खर्च आता है और इसे परमाणु विज्ञान के अनुभवी और जानकार लोग ही बना सकते हैं. ऑस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालयों और सरकारी एजेंसियों न्यूक्लियर साइंस से जुड़े विषयों पर ट्रेनिंग प्रोग्राम्स चलाए जाते हैं और माना जा रहा है कि ऑस्ट्रेलिया इस सिलसिले में प्रशिक्षित वर्कफोर्स की बढ़ती मांग को पूरा करने में सक्षम है.
इसके अलावा उसे ब्रिटेन और अमेरिका से हुए समझौते के कारण उनके अनुभवों का भी फायदा मिलेगा. हालांकि अभी ये बात साफ़ नहीं है कि ऑस्ट्रेलिया के लिए जो परमाणु पनडुब्बियां बनाई जाएंगी, उसका ईंधन कहां से आएगा लेकिन ऑस्ट्रेलिया के पास यूरेनियम के भंडार पहले से मौजूद हैं. उसके पास इनके संवर्धन की क्षमता नहीं है जिससे इन्हें न्यूक्लिय फ़्यूल में बदला जा सकता है लेकिन ये तकनीक दूसरे देशों से खरीदी जा सकती है.
गलतफ़हमियां
ऑकस समझौते का ये मतलब नहीं है कि ऑस्ट्रेलिया अपने जल क्षेत्र में परमाणु हथियारों की तैनाती करने जा रहा है. अगर वो ऐसा करता है तो इसके लिए 'वीपन ग्रेड' के यूरेनियम की ज़रूरत पड़ेगी. इसके लिए उसे यूरेनियम 235 को 90 फ़ीसदी तक संवर्धन करना होगा. लेकिन न्यूक्लियर सबमरीन के लिए उस तरह के ईंधन की ज़रूरत नहीं पड़ती है.
ऑस्ट्रेलिया ने परमाणु हथियारों के प्रसार पर रोकथाम लगाने वाली कई संधियों पर हस्ताक्षर किए है और वो परमाणु हथियार नहीं बना सकता है. परमाणु पनडुब्बी का सबसे बड़ा फ़ायदा ये है कि वो खुफिया तरीके से अपने मिशन को अंजाम दे सकता है. वो खुद बिना पकड़ में आए अपने टारगेट को निशाना बना सकता है.
चालक दल और पर्यावरण दोनों के लिहाज से इसकी सुरक्षा मायने रखती है. लेकिन आधुनिक टेक्नोलॉजी के सहारे सुरक्षा के इंतज़ाम जिस तरह से पुख़्ता हो रहे हैं, उससे ये उम्मीद की जाती है कि परमाणु पनडुब्बियों के दुर्घटनाग्रस्त होने के ख़तरे को कम किया जा सकता है. इस राजनीतिक फ़ैसले का आने वाले समय में क्या नतीजा निकलेगा, ये फिलहाल भविष्य के गर्भ में है.
source bbc hindi
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