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छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास
छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास का प्रारम्भ पाषाण काल से होता है। इस काल से संबंधित साक्ष्य छत्तीसगढ़ के अनेक स्थलों से प्राप्त हुआ है। इन स्थलों को साक्ष्य प्राप्ति के आधार पर पाषाण काल ,मध्य पाषाण काल तथा उत्तर पाषाण काल में बाँटा जा सकता है।
पूर्व पाषाण काल - सिघनपुर ,कबरा पहाड़ ,बोतल्दा ,सोनबरसा
मध्य पाषाण काल - गढ़धनौरा ,कालीपुर ,राजपुर
उत्तर पाषाण काल - कबरा पहाड़,सिंघनपुर ,महानदी घाटी
नव पाषाण काल - अर्जुनी (दुर्ग ),टेरम (रायगढ़ ),चितवा डोंगरी (राजनाँदगाँव )
महापाषाण काल - करही भदर ,सोरर ,करकाभाट,धनोरा (बालोद )
पौराणिक युग
रतनपुर - सतयुग (मणिपुर ),त्रेता (मनिकपुर ),द्वापर (हीरापुर )
चेदि देश का राजा बभ्रुवाहन(अर्जुन का पुत्र ) की राजधानी चित्रांगदपुर (सिरपुर ) था।
रायपुर का आरंग तथा बिलासपुर के रतनपुर के साथ राजा मोरध्वज का सम्बन्ध है।
महाजनपद काल
इस काल में गौतम बुद्ध छत्तीसगढ़ की यात्रा पर आये थे। इस बात की पुष्टि बौद्ध ग्रन्थ अवदान शतक तथा चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृतांत से होती है।
नन्द मौर्य वंश
ऐसा माना जाता है की अशोक ने दक्षिण कोसल की राजधानी सिरपुर में स्तूप का निर्माण करवाया था।
जोगी मारा (सरगुजा ) से ब्राम्ही लिपि में सुतनुका नामक देवदासी और उसके प्रेमी देवदत्त का उल्लेख है।
सीताबेंगरा में विश्व की प्राचीन नाट्यशाला है।
तारापुर,आरंग,उड़ेला (रायपुर ) आदि स्थानों से आहात मुद्राएं प्राप्त हुई है प्राक - मौर्य काल के सिक्के मिले है।
मौर्य काल के सिक्के अकलतरा ,ठठारी ,बार ,बिलासपुर से प्राप्त हुआ है।
मल्हार से मौर्यकालीन शिव मंदिर तथा पातेश्वर महादेव मंदिर का साक्ष्य प्राप्त हुआ है।
बिलासपुर के अकलतरा के पास कोटगढ़ में मौर्य काल का मिट्टी का किला है।
सातवाहन काल
मौर्यों के पतन के पश्चात छत्तीसगढ़ में भी सातवाहन वंश का शासन प्रारम्भ हुआ।
राजा अपिलक की मुद्रा बालपुर (रायगढ़ ) से प्राप्त हुई है।
सक्ती के निकट गुंजी (ऋषभ तीर्थ ) से प्राप्त शिलालेख में कुमार वरदत्त श्री नामक राजा का उल्लेख है।
काष्टस्तम्भ लेख जांजगीर जिले के किरारी (चंद्रपुर ) से प्राप्त हुआ है।
छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थलों से ताँबे के आयताकार सिक्के प्राप्त हुए है जिसमे एक तरफ हाथी तथा दूसरी और स्त्री अथवा नाग का अंकन है।
बुढ़ीखार नामक स्थल से लेख युक्त एक प्रतिमा प्राप्त हुई है।
मल्हार से मिट्टी की मुहर प्राप्त हुई है जिसमे वेद श्री लिखा हुआ है।
चीनी यात्री युवान-च्वांग ने उल्लेख किया है दक्षिण कोसल की राजधानी के निकट बौद्ध भिक्षु नागर्जुन के लिए एक पांच मंजिला भव्य संघाराम निर्माण करवाया था।
वाकाटक काल
वाकाटक वंश के शासक प्रवरसेन प्रथम ने दक्षिण कोसल पर अधिकार कर लिया था।
पृथ्वीसेन द्वितीय के बालाघाट ताम्रपत्र से ज्ञात होता है की उसके पिता नरेंद्रसेन ने कोसल के साथ मालवा और मैकल में अपना अधिकार स्थापित कर लिया था।
गुप्त वंश
छत्तीसगढ़ में गुप्त काल में समुद्रगुप्त का आक्रमण हुआ था जिसमे समुद्रगुप्त ने दक्षिण कोसल के शासक महेंद्र को पराजित किया था। इसके पश्चात महाकांतर के शासक व्याघ्रराज को पराजित किया।
बानबरद (दुर्ग ) में गुप्तकालीन सिक्के प्राप्त हुए है।
राजर्षितुल्य कुल
भीमसेन द्वितीय के आरंग ताम्रपत्र से इस वंश के विषय में जानकारी प्राप्त होता है।
इस ताम्रपत्र से छः राजाओं के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
इनके नाम निम्न है - शूरा ,दयित ,विभीषण ,भीमसेन (प्रथम ),दयित ( द्वितीय),भीमसेन (द्वितीय)
नलवंश
इनके विषय में जानकारी का प्रमुख स्रोत निम्न है -
भवदत्त वर्मन का ऋद्विपुर ताम्रपत्र
अर्थपति का केसरीबेड़ा ताम्रपत्र
भीमसेन का पाण्डिय पाथर ताम्रपत्र
स्कन्दवर्मा का पोड़ागढ़ अभिलेख
विलासतुंग का राजिम शिलालेख
एड़ेंगा(कोंडागांव) में नल वंशीय सोने के सिक्के
इसके संस्थापक वराहराज थे। इनका प्रभाव छत्तीसगढ़ में बस्तर के साथ साथ ओडिसा में भी था।
भवदत्त ने वाकाटक वंशी शासक नरेंद्र सेन को पराजित किया था(भवदत्त वर्मन का ऋद्विपुर ताम्रपत्र) तथा उसकी राजधानी नन्दिवर्धन को तह नहस कर दिया था.कालांतर में नरेंद्र सेन के पुत्र पृथ्वीसेन ने भवदत्त के पुत्र अर्थपति को पराजित कर उसकी राजधानी पुष्करी को तहस नहस कर दिया। जिसे अर्थपति के पुत्र स्कंदवर्मन ने फिर से बसाया। इस बात की पुष्टि पोड़ागढ़ अभिलेख से होती है।
विलासतुंग ने राजिम में राजीव लोचन मंदिर निर्माण करवाया था . (राजिम अभिलेख )वह विष्णु का उपासक था।
शरभपुरीय वंश
इस वंश के संस्थापक शरभराज थे।
इसकी राजधानी शरभपुर थी।
इसके संस्थापक राजा शरभराज का वर्णन भानुगुप्त के एरण(सतना ) अभिलेख से प्राप्त होता है।
इसका उत्तराधिकारी नरेंद्र था।
इस वंश का प्रतापी राजा प्रसन्नमात्र था। इसने निडिला नदी (लीलागर ) प्रसन्नपुर के नाम से एक नए नगर की स्थापना की थी जिसे वर्तमान में मल्हार के नाम से जाना जाता है।
इसने बड़े पैमाने पर सोने तथा चाँदी के सिक्के जारी किये थे। जिसमे गरुड़ ,शंख तथा चक्र का चिन्ह अंकित है जिससे पुष्टि होती है की वह वैष्णव धर्म का पालन करता था।
इनके पश्चात अगला प्रतापी शासक प्रवरराज प्रथम थे। इसने महानदी के तट पर श्रीपुर की स्थापना की थी जिसे वर्तमान में सिरपुर के नाम से जाना जाता है।
इस वंश के अंतिम शासक प्रवरराज द्वितीय थे। इसके दो ताम्रपत्र ठाकुरदिया तथा मल्हार से प्राप्त हुए है। इनकी हत्या इसके सेनापति इन्द्रबल ने कर दी तथा एक नए वंश की नीव रखी जिसे पाण्डु वंश के नाम से जाना जाता है।
पाण्डु वंश
इस वंश के संस्थापक इन्द्रबल थे। इसके पिता का नाम उदयन(कालंजर अभिलेख ) था।
इन्द्रबल के पश्चात उसका बड़ा बेटा नन्नराज अगला शासक बना।
इन्द्रबल के पुत्र ईशानदेव ने खरोद में लक्ष्मणेश्वर मंदिर की स्थापना की। (खरोद अभिलेख )
महाशिव तीवरदेव इस वंश का प्रतापी राजा था। इसने सकल कोसलधिपति की उपाधि धारण की थी।
हर्षगुप्त इस वंश का एक और महत्वपूर्ण शासक था। इसका विवाह मौखरि वंश के शासक सूर्यवर्मा की पुत्री वासटा देवी से हुआ था।
वासटा देवी ने ही हर्षगुप्त की मृत्यु के पश्चात अपने पति के स्मृति में सिरपुर स्थित लक्ष्मण मंदिर का निर्माण करवाया था।
महाशिवगुप्त बालार्जुन इस वंश का अत्यंत प्रतापी शासक था। इसके शासन काल को छत्तीसगढ़ का स्वर्ण युग कहा जाता है।
चीनी यात्री व्हेनसॉंग इसी के शासन काल में छत्तीसगढ़ की यात्रा पर आया था। (639 ई )उसने छत्तीसगढ़ को किया-स-लो के रूप में उल्लेखित किया है।
इसके शासनकाल को धार्मिक रूप से अत्यंत सहिष्णु माना जाता है।वह स्वयं शिव का अनुयायी था।परन्तु ,उसके शासन काल में ही सिरपुर बौद्ध धर्म का बहुत बड़ा केंद्र था।
संभवतः 634 ई में उसने चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय से पराजित होकर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी.
इसके शासन काल का 27 ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है जिसका अध्ययन डॉ विष्णु सिंह ठाकुर तथा डॉ रमेंद्रनाथ मिश्रा ने किया है।
बाण वंश
इस वंश का विस्तार कोरबा तथा उसके आस पास के क्षेत्र में था। इसकी राजधानी पाली (कोरबा )था। इस वंश के प्रतापी शासक विक्रमादित्य ने यहाँ एक शिव मंदिर का निर्माण करवाया था। कालांतर में कलचुरी शासकों ने इन्हे पराजित कर अपनी सत्ता स्थापित कर ली।
बस्तर का छिन्दक नागवंश
इस वंश का विस्तार बस्तर, सिहावा तथा ओडिशा आदि में था। इस वंश के विषय में जानकारी का प्रमुख स्रोत -
सोमेश्वर प्रथम का कुरुसपाल अभिलेख
एर्राकोट का तेलगु अभिलेख
धारावर्ष जगदेव भूषण का बारसूर अभिलेख
गुंड महादेवी का नारायणपाल अभिलेख
टेमरा से प्राप्त सती स्मारक
इस वंश के संस्थापक नृपति भूषण थे।
इसके उत्तराधिकारी धारावर्ष जगदेव भूषण थे। इसके सामंत चन्द्रादित्य ने बारसूर में एक तालाब तथा एक मंदिर का निर्माण करवाया था।
कुछ समय अंतराल के लिए मधुरांतक देव इस वंश के शासक बने परन्तु बाद में सोमेश्वर देव इसके शासक बने।
सोमेश्वर देव इस वंश के प्रतापी राजा थे। जिसे कलचुरी शासक जाजल्ल देव प्रथम ने पराजित कर दिया।
इस वंश के अंतिम शासक हरीशचंद्र देव थे जिसकी पराजय अन्नमदेव के द्वारा हुए।
इस वंश के पतन के पश्चात बस्तर काकतीय वंश का शासन प्रारम्भ हुआ।
कवर्धा का फणिनागवंश
इस वंश के संस्थापक अहिराज थे।
गोपाल देव ने इस काल में भोरमदेव मंदिर का निर्माण 1048 ई में करवाया था।
रायपुर शाखा के कलचुरी शासक ब्रह्मदेव के पिता रायदेव ने मोहिंम देव को पराजित किया था।
रामचंद्र देव ने मड़वा महल का निर्माण 1349 ई में किया था।
कांकेर का सोम वंश
इसके संस्थापक शासक सिंह राज थे।
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