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मीमांसा दर्शन

 मीमांसा दर्शन

mimansha darshan


यह भारतीय दर्शन का प्रमुख अध्याय है। उल्लेखनीय है कि भारतीय दर्शन को दो भागों में बांटा जाता है- 

आस्तिक दर्शन

नास्तिक दर्शन

आस्तिक दर्शन वेदों को मानता है जबकि नास्तिक दर्शन वेदों पर विश्वास नहीं करता ।

इस आधार पर मीमांसा दर्शन आस्तिक दर्शन है ।यह वेदों में पूर्ण आस्था रखता है ।इसके अतिरिक्त यह कर्म की विस्तृत वर्णन करता है, इसलिए इसे कर्मकांड भी कहा जाता है।

मीमांसा दर्शन के प्रणेता जैमिनी है।आगे चलकर मीमांसा दर्शन के दो संप्रदाय बन गए - एक संप्रदाय के प्रणेता कुमारिल भट्ट तथा दूसरे संप्रदाय के प्रणेता प्रभाकर मिश्रा थे।

मीमांसा दर्शन में अपूर्व का सिद्धांत

मीमांसा दर्शन में वेदों को स्वीकार किया जाता है। इस दर्शन का मानना है कि आपको तभी स्वर्ग की प्राप्ति होगी जब आप वेदों में बताए गए कार्यों का पालन करेंगे।

मीमांसा वैदिक कर्मकांड को ही धर्म मानता है तथा धर्म अर्थात वेदों के अनुसार जीवन जीने कि वकालत करता है।

यह दर्शन कर्म पर ईश्वर से ज्यादा जोर देता है।यह आत्मा की शुद्धि के लिए कर्म करने पर जोर देता है ।वेद में अनेक प्रकार के कर्मो कि चर्चा हुई है जो की निम्न है -

1 नित्य कर्म - यह वे कर्म है जिन्हे प्रत्येक दिन व्यक्ति को करना होता है । यथा ध्यान, स्नान, संध्या आदि। 

2 नैमित्तिक कर्म - इन कर्मो का संबंध उन कर्मो से है जो विशेष अवसर पर किया जाता है । यथा सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण आदि। इन कर्मों  को करने से पाप का संचय होता है।

3 काम्य कर्म - इन कर्मो का उद्देश्य कुछ निश्चित फल प्राप्त करना होता है ।तथा पुत्र प्राप्ति,धन प्राप्ति आदि। ऐसे कर्म को करने से पुण्य का संचय होता है।

4 निषिद्ध कर्म - इसके अन्तर्गत उन कर्मो को शामिल किया जाता है जिन्हें करने से पुण्य की प्राप्ति नहीं होती तथा मनुष्य पाप का भागी होता है।

5 प्रायश्चित कर्म- यदि कोई व्यक्ति निषिद्ध कर्म को करता है तो उसके अशुभ फल से बचने के लिए यह कर्म किया जाता है ।

मीमांसा दर्शन में भी गीता की तरह निष्काम कर्म को महत्व प्रदान किया गया है तथा इसे है धर्म की संज्ञा दी गई है। इस का मानना है कि हमें कर्तव्य का पालन इसलिए नहीं करना चाहिए की उनसे उपकार होगा बल्कि इसलिए करना चाहिए कि हमें कर्तव्य करना है।

इसी तरह मीमांसा इस बात पर जोर देता है कि हम जो कर्म अपने जीवन में करते है उसका फल हमें मृत्यु के बाद प्राप्त होता है तथा हमारी आत्मा को उसके अनुसार सुख और दुख उठाना पड़ता है।

इसे मीमांसा में अपूर्व कहा जाता है। अपूर्व ही वह अदृष्ट शक्ति है जिसकी वजह से हमें कर्मो का फल बाद में प्राप्त होता है।

अपूर्व स्वसंचालित होता है तथा इसकी सत्ता का ज्ञान हमें वेदों से प्राप्त होता है।



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