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न्यायालय की अवमानना तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी

न्यायालय की अवमानना तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी

न्यायालय की अवमानना

हाल ही में देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट ने जानेमाने वकील प्रशांत भूषण के दो विवादित ट्वीट्स को लेकर उन्हें अवमानना का दोषी माना है.इस मामले के बाद न्यायालय की अवमानना आजकल खबरों में है.


न्यायालय की अवमानना  से क्या अभिप्राय है ?

हिमाचल प्रदेश नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर चंचल कुमार सिंह कहते हैं, "भारत के संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट को 'कोर्ट ऑफ़ रिकॉर्ड'(अभिलेख न्यायालय ) का दर्जा दिया गया है और उन्हें अपनी अवमानना के लिए किसी को दंडित करने का हक़ भी हासिल है."

"कोर्ट ऑफ़ रिकॉर्ड से मतलब हुआ कि सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के आदेश तब तक प्रभावी रहेंगे जब तक कि उन्हें किसी क़ानून या दूसरे फ़ैसले से ख़ारिज न कर दिया जाए."

साल 1971 के कंटेम्ट ऑफ़ कोर्ट्स ऐक्ट(न्यायालय की अवमानना) में पहली बार वर्ष 2006 में संशोधन किया गया.

इस संशोधन में दो बिंदु जोड़े गए ताकि जिसके ख़िलाफ़ अवमानना का मामला चलाया जा रहा हो तो 'सच्चाई' और 'नियत' भी ध्यान में रखा जाए.

इस क़ानून में दो तरह के मामले आते हैं - फौजदारी और ग़ैर फौजदारी यानी 'सिविल' और 'क्रिमिनल कंटेम्प्ट.'

'सिविल कंटेम्प्ट' के तहत वो मामले आते हैं जिसमे अदालत के किसी व्यवस्था, फैसले या निर्देश का उल्लंघन साफ़ दिखता हो जबकि 'क्रिमिनल कंटेम्प्ट' के दायरे वो मामले आते हैं जिसमें 'स्कैंडलाइज़िंग द कोर्ट' वाली बात आती हो. प्रशांत भूषण पर 'आपराधिक मानहानि' का मामला ही चलाया जा रहा है.

प्रोफ़ेसर चंचल कुमार सिंह कहते हैं, "कोर्ट की आम लोगों के बीच जो छवि है, जो अदब और लिहाज है, उसे कमज़ोर करना क़ानून की नज़र में अदालत पर लांछन लगाने जैसा है."

दूसरे लोकतंत्रो में क्या व्यवस्था है ?

साल 2012 तक ब्रिटेन में 'स्कैंडलाइज़िंग द कोर्ट' यानी 'अदालत पर लांछन' लगाने के जुर्म में आपराधिक कार्यवाही का सामना करना पड़ सकता था.

लेकिन ब्रिटेन के विधि आयोग की सिफारिश के बाद 'अदालत पर लांछन' लगाने के जुर्म को अपराध की सूची से हटा दिया गया.

बीसवीं सदी में ब्रिटेन और वेल्स में अदालत पर लांछन लगाने के अपराध में केवल दो अभियोग चलाए गए थे.

इससे ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अवमानना से जुड़े ये प्रावधान अपने आप ही अप्रासंगिक हो गए थे.

हालांकि अमरीका में सरकार के ज्यूडिशियल ब्रांच की अवज्ञा या अनादर की स्थिति में कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट के प्रावधन है लेकिन देश के संविधान के फर्स्ट अमेंडमेंट(प्रथम संशोधन ) के तहत अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता के अधिकार को इस पर तरजीह हासिल है.

अभिव्यक्ति की आज़ादी तथा न्यायालय की अवमानना 

अभिव्यक्ति की आज़ादी को लोकतंत्र की बुनियाद के तौर पर देखा जाता है.भारत का संविधान अपने नागरिकों के इस अधिकार की गारंटी देता है.

लेकिन इस अधिकार के लिए कुछ शर्तें लागू हैं और उन्हीं शर्तों में से एक है अदालत की अवमानना का प्रावधान.यानी ऐसी बात जिससे अदालत की अवमानना होती हो, अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में नहीं आएगी.

प्रोफ़ेसर चंचल कुमार सिंह की राय में संविधान में ही इस तरह की व्यवस्था बनी हुई है कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के पास 'कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट' की असीमित शक्तियां हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार इसके आगे गौण हो जाता है.

दिल्ली ज्यूडिशियल सर्विस एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और सीके दफ़्तरी बनाम ओपी गुप्ता जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट बार-बार ये साफ़ कर चुकी है कि संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 के तहत मिले उसके अधिकारों में न तो संसद और न ही राज्य विधानसभाएं कोई कटौती कर सकती है.

बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी को लोकतंत्र की आत्मा कहा जाता है लेकिन संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार असीमित नहीं है। कुछ विषयों के संबंध में इसे प्रतिबंधित भी किया गया है। ऐसे प्रतिबंधों में ही न्यायालय की अवमानना भी शामिल है। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय कई फैसले दे चुका है।

अवमानना कानून के संदर्भ में लेखिका अरुन्धती राय को न्यायालय की अवमानना के लिये दोषी ठहराते हुए शीर्ष अदालत ने छह मार्च, 2002 को अपने फैसले में स्पष्ट शब्दों में कहा था कि कोई भी व्यक्ति संविधान में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में कानून का शासन कायम करने के लिये स्थापित अदालतों का सम्मान करने के कानून का उल्लंघन नहीं कर सकता है। न्यायमूर्ति जीबी पटनायक और न्यायमूर्ति आरपी सेठी ने यह फैसला सुनाते हुए अरुन्धती राय को सांकेतिक रूप से एक दिन की कैद और दो हजार रुपये जुर्माने की सजा सुनाई थी।

 इस विवाद को ध्यान में रखते हुए ही मार्च 2018 में नरेन्द्र मोदी सरकार ने इस विषय को विधि आयोग के पास विचारार्थ भेजा था। यह विषय इस कानून की धारा 2 में संशोधन के बारे में न्यायालय द्वारा दिये गये निर्देशों और आदेशों की जान-बूझकर अवज्ञा करने संबंधी परिभाषा तक सीमित था। आयोग ने इस विषय पर अप्रैल, 2018 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी, जिसमें उसने इस धारा में किसी प्रकार के बदलाव से अहसमति व्यक्त की थी।

विधि आयोग  ने 274वीं रिपोर्ट में संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) के संदर्भ में अवमानना कानून के प्रावधानों पर विस्तार से विचार किया है। आयोग का कहना है कि जिस संविधान ने नागरिकों को बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार प्रदान किया है, उसी संविधान ने कुछ शक्तियां न्यायपालिका को भी प्रदान की हैं ताकि इन अधिकारों की आड़ में अदालतों का अपमान होने और न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप को रोका जा सके। रिपोर्ट के अनुसार अगर कोई व्यक्ति अनुच्छेद 19(1)(ए) में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार की आड़ में न्यायालय की अवमानना करता है तो न्यायालय ऐसे व्यक्ति को संविधान के अनुच्छेद 129 या अनुच्छेद 215 के तहत दंडित कर सकता है। इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय कई फैसले सुना चुका है।

न्यायालय ने कई मामलों में सजा भी दी है। दूसरी ओर, न्यायालय ने अनेक मामलों में ऐसे व्यक्तियों की बिता शर्त क्षमा-याचना स्वीकार करते हुए उन्हें आगाह करते हुए ऐसे मामले बंद कर दिये हैं।

जहां तक वकीलों का सवाल है वकीलों से हमेशा यही अपेक्षा है कि वे न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप का प्रयास नहीं करेंगे और न्यायपालिका तथा न्यायाधीशों के प्रति उनका आचरण सम्मानजनक होगा। देश के दो प्रमुख नामचीन पत्रकारों के साथ एक अधिवक्ता ने अभिव्यक्ति की आजादी के संदर्भ में न्यायालय की अवमानना कानून की धारा 2 (सी)(1) की वैधानिकता को चुनौती दी है। उम्मीद है कि अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के बारे में न्यायालय की सुविचारित व्यवस्था जल्द मिलेगी।

 स्रोत बीबीसी हिंदी ,दैनिक ट्रिब्यूनल 

 


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