अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे
द्वितीय विश्व युद्ध की 75वीं विजय दिवस परेड तथा भारत
द्वितीय विश्व युद्ध में विजय की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर, वीरता और बलिदानों का सम्मान करने के लिए रूस और अन्य मैत्रीपूर्ण लोगों द्वारा मॉस्को में एक सैन्य परेड आयोजित किया जायेगा। उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने रूसी संघ के राष्ट्रपति श्री व्लादिमीर पुतिन को विजय दिवस- 9 मई, 2020 के अवसर पर बधाई संदेश भेजा था।
रूस के रक्षा मंत्री ने मॉस्को में 24 जून, 2020 को आयोजित होने वाले विजय दिवस परेड में भाग लेने के लिए भारतीय दल को आमंत्रित किया है। रक्षा मंत्री ने परेड में भाग लेने के लिए 75 सदस्यीय दल को भेजने पर सहमति व्यक्त की है,
भारतीय दल में तीनों सेनाओं के सैन्यकर्मियों को शामिल किया गया है। परेड में भाग लेना, रूस के लोगों के साथ एकजुटता दिखाने और श्रद्धांजलि देने का प्रतीक होगा जब वे महान देशभक्ति के युद्ध के अपने नायकों को याद करेंगे।
जापान तथा चीन के बीच विवादित द्वीप
पृष्ठ्भूमि
जिस आईलैंड पर चीन लंबे समय से अपनी नजरें गड़ाए बैठा है उस ओर जापान ने आगे बढ़ना शुरू कर दिया है। दरअसल, ओकीनावा में इशिगाकी सिटी काउंसिल ने एक बिल को मंजूरी दी जिससे सेंकाकुस द्वीप पर जापान के नियंत्रण को मजबूती प्रदान करता है।
उल्लेखनीय है कि जापान और चीन के बीच पूर्वी चीन सागर के द्वीपों को लेकर विवाद है। एक ओर जापान इसे सेंकाकुस कहता है, वहीं दूसरी ओर चीन इस पर दावा करता है और इसे दियाओयुस कहता है। इसपर वर्ष 1972 से जापान का कब्जा है। दोनों देशों के रिश्तों में 2012 से उस समय तल्खी आ गई थी जब जापान ने कुछ द्वीपों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। इसके बाद चीन ने टोक्यो के साथ उच्च स्तरीय वार्ताओं से इंकार कर दिया था। रिश्तों में कायम अवरोध में 2015 में कुछ कमी दिखी थी जब जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने एक-दूसरे से हाथ मिलाया था।
सिटी काउंसिल द्वारा बिल पारित करने से पहले बीजिंग ने टोक्यो को आइलैंड चेन में किसी तरह के बदलाव के बाबत चेतावनी दे दी थी। चीन के विदेश मंत्रालय द्वारा जारी बयान में कहा गया कि यह आइलैंड उनका अंर्तनिहित इलाके के अंतर्गत आता है। बीजिंग ने जापान से दियाओयू आइलैंड पर किसी तरह के बदलाव या नए परिवर्तन से बचने की सलाह देते हुए कहा कि पूर्वी चीन सागर में स्थिरता कायम करने के लिए व्यवहारिक कार्रवाई करे। इसके अलावा बीजिंग ने जापान से ‘चार-सिद्धांत सहमति’ की भावना का पालन करने को भी कहा।
सेनकाकुस द्वीपसमूह
इस द्वीपसमूह में कुल आठ द्वीप हैं. इनका टोटल इलाका है करीब सात स्क्वैयर किलोमीटर. कहने को इसपर कोई आबादी नहीं रहती. मगर सामरिक और व्यापारिक नज़रिये से इसकी बहुत अहमियत है. इसके निम्न कारण है
यह प्रशांत महासागर के व्यस्त शिपिंग रूट में पड़ता है.यह दुनिया के सबसे संपन्न फिशिंग ग्राउंड्स में से एक है. अर्थात यहाँ ख़ूब सारी मछलियां जमा होती हैं.
यहां मौजूद कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस का भंडार. माना जाता है कि पूरे पूर्वी चाइना सी में कच्चे तेल और गैस का जितना भंडार है, उसका अधिकतर हिस्सा ओकिनावा के आसपास के हिस्से में है. चूंकि सेनकाकुस भी इसी हिस्से में है, तो यहां भी कच्चे तेल और गैस का बड़ा भंडार होने का अनुमान है.
भारतीय आईटी एक्सपर्ट्स तथा एच-1बी वीजा
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एच-1बी वीजा समेत विदेशियों को जारी होने वाले नौकरियों से जुड़े कई वीजा को सस्पेंड रखने का समय बढ़ा दिया। 31 दिसंबर तक विदेशियों को ग्रीन कार्ड और एच-1बी वीजा जारी नहीं होगा। ट्रम्प ने एच-1बी वीजा का गलत इस्तेमाल रोकने का भी निर्देश दिया है। अगर कोई वीजा से जुड़े नियमों का पालन नहीं करता है तो अमेरिका का लेबर डिपार्टमेंट उसके खिलाफ कार्रवाई करेगा। हालांकि फूड इंडस्ट्री, मेडिकल और कुछ अन्य क्षेत्रों के लिए वीजा जारी करने को मंजूरी दी जा सकती है। इस साल अप्रैल में एच-1 बी वीजा जारी करने की प्रक्रिया 60 दिन के लिए निलंबित की थी।
अमेरिकी वीजा के प्रकार
एच-1बी – विशेष काम के कर्मचारियों को दिया जाने वाला वीजा
एच-2बी – नॉन-एग्रीकल्चरल कामों के लिए सीजनल वर्करों को दिया जाने वाला वीजा
जे-1 – चिकित्सा और व्यवसाय का प्रशिक्षण लेने वालों के लिए दिया जाने वाला वीजा
एल-1 – ग्लोबल कंपनियों के कर्मचारियों के अमेरिका ट्रांसफर पर दिया जाने वाला वीजा
क्यों लिया गया यह फैसला ?
अमेरिका में महामारी के कारण बेरोजगारी दर अचानक बढ़ गई है। इसका असर कम करने और अमेरिकी नागरिकों की नौकरियां बचाने के लिए यह फैसला किया गया है। फिलहाल यह प्रतिबंध अस्थाई है। इस पर आगे कोई फैसला अमेरिका वीजा प्रोसेस में सुधार करने के बाद लिया जाएगा। दूसरे देशों से ट्रांसफर किए जाने वाले कर्मचारियों को जारी होने वाले एल-1 वीजा पर भी रोक लगाई गई है।
क्या है एच -1बी वीजा ?
एच-1बी वीजा एक गैर-प्रवासी वीजा है. यह किसी कर्मचारी को अमेरिका में छह साल काम करने के लिए जारी किया जाता है. अमेरिका में कार्यरत कंपनियों को यह वीजा ऐसे कुशल कर्मचारियों को रखने के लिए दिया जाता है जिनकी अमेरिका में कमी हो. इस वीजा के लिए कुछ शर्तें भी हैं. जैसे इसे पाने वाले व्यक्ति को स्नातक होने के साथ किसी एक क्षेत्र में विशेष योग्यता हासिल होनी चाहिए. साथ ही इसे पाने वाले कर्मचारी की सैलरी कम से कम 60 हजार डॉलर यानी करीब 40 लाख रुपए सालाना होना जरूरी है. इस वीजा की एक खासियत भी है कि यह अन्य देशों के लोगों के लिए अमेरिका में बसने का रास्ता भी आसान कर देता है, एच-1बी वीजा धारक पांच साल के बाद स्थायी नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं. इस वीजा की मांग इतनी ज्यादा है कि इसे हर साल लॉटरी के जरिये जारी किया जाता है. एच-1बी वीजा का सबसे ज्यादा इस्तेमाल टीसीएस, विप्रो, इंफोसिस और टेक महिंद्रा जैसी 50 से ज्यादा भारतीय आईटी कंपनियों के अलावा माइक्रोसॉफ्ट और गूगल जैसी बड़ी अमेरिकी कंपनियां भी करती हैं.
भारत की चिंता का कारण
टीसीएस, इंफोसिस और विप्रो जैसी दिग्गज भारतीय आईटी कंपनियों का करीब 60 फीसदी रेवेन्यू अमेरिका से आता है. साथ ही ये सभी कंपनियां बड़ी संख्या में एच-1बी वीजा धारकों से काम करवाती हैं. अमेरिकी श्रम मंत्रालय के अनुसार हर साल दिए जाने वाले कुल 85000 एच-1बी वीजा में से 60 फीसदी भारतीय कंपनियों को दिए जाते हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में इंफोसिस के कुल कर्मचारियों में 60 फीसदी से ज्यादा एच 1बी वीजा धारक हैं. इसके अलावा वाशिंगटन और न्यूयॉर्क में एच-1बी वीजा धारकों में करीब 70 प्रतिशत भारतीय हैं.
इन आंकड़ों को देखकर साफ़ हो जाता है कि यदि अमेरिका में एच-1बी वीजा दिए जाने के नियमों में कोई बदलाव किया गया तो इससे सबसे ज्यादा भारतीय इंजीनियर और भारतीय कंपनियां प्रभावित होंगी. साथ ही इसका बुरा प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा. दरअसल, भारतीय जीडीपी में भारतीय आईटी कंपनियों का योगदान 9.5 प्रतिशत के करीब है और इन कंपनियों पर पड़ने वाला कोई भी फर्क सीधे तौर पर अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगा.
स्रोत - भास्कर डॉट कॉम ,सत्याग्रह.स्क्रॉल.इन
भारत तथा सुरक्षा परिषद की अस्थाई सदस्यता
पृष्ठ्भूमि
भारत 8 साल में 8वीं बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थाई सदस्य चुन लिया गया है। बुधवार को हुई वोटिंग में महासभा के 193 देशों ने हिस्सा लिया। 184 देशों ने भारत का समर्थन किया। अमेरिका ने सुरक्षा परिषद में भारत की अस्थाई सदस्यता का स्वागत किया।
संयुक्त राष्ट्र चार्टर के मुताबिक, भारत दो साल के लिए अस्थाई सदस्य चुना गया है। भारत के साथ आयरलैंड, मैक्सिको और नॉर्वे भी अस्थाई सदस्य चुने गए हैं।
सुरक्षा परिषद
क्या संयुक्त राष्ट्र का एक महत्वपूर्ण अंग है इसे दुनिया का पुलिस किया संयुक्त राष्ट्र का हृदय भी कहा जाता है।इसका प्रमुख कार्य दुनिया में शांति की स्थापना करना है। इसके लिए यह शांति को खतरा उत्पन्न करने वाले देशों के साथ बातचीत करता है तथा इस माध्यम से बात ना बनने पर यह आर्थिक प्रतिबंध जैसे कड़े कदम भी उठा सकता है। इस परिषद में पांच स्थाई तथा 10 अस्थाई सदस्य होते हैं पांच स्थाई सदस्य निम्न है-संयुक्त राज्य अमेरिका,ग्रेट ब्रिटेन,फ्रांस,रूस,चीन
क्यों चुने जाते हैं अस्थाई सदस्य?
सुरक्षा परिषद में अस्थाई सदस्य चुनने का मकसद यह होता है कि वहां क्षेत्रीय संतुलन बना रहे। अफ्रीका और एशिया-प्रशांत देशों के लिए तय दो सीटों पर तीन उम्मीदवार जिबूती, भारत और केन्या हैं।
ऐसे होता है चुनाव?
193 सदस्यों वाले संयुक्त राष्ट्र में भारत को जीत के लिए दो-तिहाई यानी 128 सदस्यों का समर्थन चाहिए। सदस्य देश सीक्रेट बैलेट से वोटिंग करते हैं। भारत का कार्यकाल 1 जनवरी 2021 से शुरू होगा।
भारत कब-कब अस्थाई सदस्य चुना गया
भारत आठवीं बार सुरक्षा परिषद का अस्थाई सदस्य चुना जा रहा है। इसके पहले 1950-51, 1967-68, 1972-73, 1977-78, 1984-85, 1991-92 और 2011-12 में भारत यह ज़िम्मेदारी निभा चुका है।
नेपाल के नए मानचित्र को लेकर संविधान संशोधन पारित
नेपाल की संसद के निचले सदन ने देश के विवादित राजनीतिक नक्शे को लेकर पेश किए गए संविधान संशोधन विधेयक को मंजूरी दे दी है। वोटिंग के दौरान संसद में विपक्षी नेपाली कांग्रेस और जनता समाजवादी पार्टी- नेपाल ने संविधान की तीसरी अनुसूची में संशोधन से संबंधित सरकार के विधेयक का समर्थन किया। भारत के साथ सीमा गतिरोध के बीच इस नए नक्शे में लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को नेपाल ने अपने क्षेत्र में दिखाया है। कानून, न्याय और संसदीय मामलों के मंत्री शिवमाया थुम्भांगफे ने देश के नक्शे में बदलाव के लिए संविधान संशोधन विधेयक पर चर्चा के लिए इसे पेश किया था।
नेशनल असेंबली से विधेयक के पारित होने के बाद इसे राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी की मंजूरी के लिए भेजा गया जहाँ ,भारत के कड़े विरोध के बावजूद नेपाल की राष्ट्रपति ने देश के नए नक्शे को अपनाने वाले विधेयक को मंजूरी दे दी है। अब यह नेपाली संविधान का हिस्सा बन गया है। इससे पहले नेपाल के ऊपरी सदन ने विधेयक को पास कर दिया था। नक्शे में भारत के तीन महत्वपूर्ण इलाकों को नेपाल ने अपना बताया है।
भारत के लिपुलेख में मानसरोवर लिंक बनाने को लेकर नेपाल ने कड़ी प्रतिक्रिया दी थी। उसका दावा है कि लिपुलेख, कालापानी और लिपिंयाधुरा उसके क्षेत्र में आते हैं। नेपाल ने इसके जवाब में अपना नया नक्शा जारी कर दिया जिसमें ये तीनों क्षेत्र उसके अंतर्गत दिखाए गए। इस नक्शे को जब देश की संसद में पारित कराने के लिए संविधान में संशोधन की बात आई तो सभी पार्टियाँ एक साथ नजर आईं। इस दौरान पीएम केपी शर्मा ओली ने भारत को लेकर सख्त रवैया अपनाए रखा।
भारत-ऑस्ट्रेलिया वर्चुअल शिखर सम्मेलन
4 जून 2020 को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ऑस्ट्रेलियाई समकक्ष स्कॉट मॉरिसन के साथ एक 'वर्चुअल द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन' आयोजित किया।कोविद -19 महामारी के विश्वव्यापी प्रसार के साथ दोनों देशों ने 'वर्चुअल शिखर सम्मेलन' आयोजित करने का निर्णय लिया। यह पहला 'द्विपक्षीय वर्चुअल शिखर सम्मेलन' था जिसकी प्रधानमंत्री मोदी ने मेजबानी की थी। इससे पहले, भारत ने सार्क शिखर सम्मेलन की मेजबानी करने की पहल की और एक असाधारण वर्चुअल जी 20 बैठक में भाग लिया। ऑस्ट्रेलिया के साथ 'वर्चुअल द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन' का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम 2009 से द्विपक्षीय संबंधों की सामरिक साझेदारी को समग्र" आपसी समझ, विश्वास, सामान्य हित और लोकतंत्र और कानून के साझा मूल्यों" पर आधारित सामरिक साझेदारी के स्तर पर लाना था।
2018-19 में दोनों देशों के बीच कारोबार 21 अरब डॉलर था। दोनों देश कारोबार और निवेश बढ़ाने को लेकर आशान्वित हैं। भारत में ऑस्ट्रेलिया का कुल निवेश 10.74 अरब डॉलर था और ऑस्ट्रेलिया में भारत का निवेश 10.45 अरब डॉलर था।
ऑस्ट्रेलिया के सुपर पेंशन फंड ने भारत में नेशनल इंवेस्टमेंट ऐंड इंफ्रास्ट्रक्चर फंड में 1 अरब डॉलर का निवेश किया है । पिछले कुछ वर्षो में भारत और आस्ट्रेलिया ने नौवहन सहयोग बढ़ाने पर भी ध्यान केंद्रित किया है। ऑस्ट्रेलिया और भरत ने 2015 में पहला द्विपक्षीय नौसेना अभ्यास किया था। साल 2019 में बंगाल की खाड़ी में तीसरा अभ्यास हुआ था। ऑस्ट्रेलिया सीमा पार आतंकवाद के मुद्दे पर भारत के रुख का समर्थक रहा है।
आस्ट्रेलिया ने अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन, भारत प्रशांत महासागर पहल (आईपीओआई) जैसी कई वैश्चिक गतिविधियों में भारत का समर्थन किया है। आस्ट्रेलिया विस्तारित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन करता है। साथ ही उसने पिछले समय में वासेनार समूह और आस्ट्रेलिया ग्रुप में भारत की सदस्यता का समर्थन किया था। उसने एनएसजी में भी भारत की सदस्यता का पक्ष लिया था।
दोनों नेताओं ने भारत और ऑस्ट्रेलिया के संबंधों को एक समग्र सामरिक भागीदारी के स्तर पर ले जाने के साथ ही 'हिंद-प्रशांत क्षेत्र में नौवहन सहयोग के बारे में साझा नजरिया' विकसित करने की बात की। इस दौरान दोनों देशों के बीच नौ अहम समझौते भी हुए जिनमें पारस्परिक लॉजिस्टिक समर्थन समझौता (एमएलएसए) सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। दोनों देशों ने अब साल में दो बार होने वाले 2प्लस2 द्विपक्षीय विदेश एवं रक्षा सचिवों की बैठक को मंत्री-स्तरीय बैठक में तब्दील करने का फैसला भी किया है। फिलहाल भारत इस तरह की बैठकें अमेरिका और जापान के साथ ही करता रहा है। लेकिन अब भारत ने चतुर्गुट के सभी देशों के साथ उच्च-स्तरीय सुरक्षा एवं राजनीतिक संवाद का ढांचा विकसित कर लिया है।
यह चतुर्गुट हिंद महासागर एवं प्रशांत महासागर के समुद्री क्षेत्र में शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए एक बराबरी वाला गठजोड़ बनाने के केंद्र में है और अब ठोस रूप लेने लगा है। चीन की समुद्री रणनीति के दो आयाम हैं। पहला आयाम पीला सागर, ताइवान खाड़ी एवं दक्षिण चीन सागर में एकल वर्चस्व कायम करना और दूसरा आयाम है हिंद महासागर में अपनी नौसैनिक मौजूदगी बढ़ाना। म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान और जिबूती में बंदरगाहों का अधिग्रहण इसी रणनीति का हिस्सा है। चतुर्गुट की हिंद-प्रशांत रणनीति यही है कि चीन की नौसैनिक क्षमता को ऐसे क्षेत्र में सीमित रखा जाए जहां स्थानीय एवं बड़ी शक्तियों दोनों के ही अहम आर्थिक एवं सुरक्षा हित जुड़े हों।
यह भारत और ऑस्ट्रेलिया दोनों के ही खिलाफ चीन की हालिया उकसाऊपूर्ण हरकतों का एक सुविचारित एवं अचूक जवाब है। ऑस्ट्रेलिया को उस समय चीन से कारोबारी समझौते खत्म करने की आक्रामक धमकी मिली जब ऑस्ट्रेलिया ने कोविड-19 महामारी के वैश्विकप्रसार में चीन की भूमिका की स्वतंत्र जांच की मांग रखी थी। ऑस्ट्रेलिया ने हॉन्गकॉन्ग के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू करने के चीन के फैसले पर चिंता जताने वाले अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन का भी साथ दिया तो उसे आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। ऑस्ट्रेलिया की घरेलू राजनीति में चीन के लगातार दखल देने और अपना प्रभाव जमाने की कोशिशों के चलते दोनों देशों के रिश्तों में पिछले कुछ वर्षों में तनाव पहले से ही आ चुका था।
यह मुमकिन है कि अमेरिका पहले की तरह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक मजबूत उपस्थिति बनाए रखने को लेकर उतना प्रतिबद्ध न हो। यह स्थिति भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के लिए कहीं अधिक नजदीक से काम करने की अधिक पुख्ता वजह है ताकि अमेरिकी विचलन की भरपाई की जा सके। उनके सहयोग से ही आसियान देश चीनी दबदबे का प्रतिरोध कर पाने की स्थिति में आ सकेंगे।
चतुर्गुट के देशों को द्विपक्षीय और सामूहिक दोनों ही स्तरों पर आसियान के देशों खासकर वियतनाम एवं इंडोनेशिया से संपर्क में रहने की जरूरत है जो हाल ही में अपने समुद्री क्षेत्र में चीन की आक्रामक गतिविधियों के शिकार हुए हैं। ये देश चीन एवं अन्य बड़ी ताकतों के बीच जारी संघर्ष में नहीं फंसना चाहेंगे लेकिन वे खुद को वर्चस्वकारी चीन का पिछलग्गू बनकर भी रह जाना नहीं चाहेंगे। इसके लिए चतुर्गुट की तरफ से अधिक गूढ़ कूटनीति की जरूरत होगी।
जहाँ भारत चतुर्गुट के अपने साझेदारों और इंडोनेशिया, वियतनाम और सिंगापुर के साथ मजबूत रक्षात्मक उपाय करने में सफल रहा है वहीं आर्थिक स्तंभ इसको मजबूती देने में कमजोर कड़ी साबित हो सकते हैं। भारत और ऑस्ट्रेलिया वर्ष 2014 में ही अपने समग्र आर्थिक भागीदारी समझौते (सीईपीए) को अंतिम रूप देने के काफी करीब आ चुके थे लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। उस समय ध्यान क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी (आरसेप) समझौते पर था जो आसियान के दस देशों, चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, भारत, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीच मुक्त व्यापार एवं निवेश का एक महत्त्वाकांक्षी समझौता होने वाला था। लेकिन दुर्भाग्य से भारत इस समझौते का हिस्सा नहीं बना है और इस क्षेत्र के भावी आर्थिक पथ का सवाल तो मायने रखना बंद हो चुका है। सशक्त सुरक्षा मौजूदगी एक चमकदार आर्थिक संबंध की जगह नहीं ले सकती है।
भारत-ऑस्ट्रेलिया सीईपीए पर बातचीत फिर से शुरू करने की प्रतिबद्धता जताए जाने से हम थोड़े उत्साहित हो सकते हैं। शायद इससे न केवल ऑस्ट्रेलिया बल्कि क्षेत्र के अन्य देशों के साथ भी अधिक सक्रिय आर्थिक कूटनीति के दरवाजे खुलेंगे
एक बड़ी एवं बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के तौर पर भारत को इस क्षेत्र के लिए एक अहम आर्थिक भागीदार भी होना चाहिए ताकि वह चीन की तरह अवसर मुहैया करा सके। भारत को आरसेप का हिस्सा बनने के साथ ऑस्ट्रेलिया संग व्यापार वार्ता बहाल करनी चाहिए। एक भरोसेमंद हिंद-प्रशांत रणनीति आर्थिक कातरता की नीति से नहीं हासिल की जा सकती है।
कोहाला जलविद्युत परियोजना
पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) में भारत की आपत्तियों के बावजूद चीन अरबों डॉलर के सीपीईसी के तहत निर्माण कार्य तेज कर रहा है। एक मीडिया रिपोर्ट में मंगलवार को बताया गया कि चीन ने सीपीईसी के तहत पीओके में 1124 मेगावाट की एक बिजली परियोजना को हरी झंडी दिखा दी है।
झेलम नदी पर बनने वाली इस परियोजना पर करीब 2.4 अरब डॉलर का खर्च आएगा।
पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर और लद्दाख के गिलगित-बाल्टिस्तान से होकर गुजरने वाले 3000 किलोमीटर लंबे सीपीईसी का निर्माण चीन और पाकिस्तान मिलकर कर रहे हैं। इसके तहत चीन के शिनजियांग राज्य को पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से रेल, सड़क, पाइपलाइन और ऑप्टिकल फाइबर केबल नेटवर्क के जरिये जोड़ा जाना है। भारत लगातार इसे अपनी संप्रभुता का हनन बताते हुए इस पर आपत्ति जता रहा है।
विवादित क्षेत्र में यह एक महीने के अंदर दूसरी बड़ी परियोजना है, जिसका निर्माण पाकिस्तान और चीन मिलकर करेंगे। पिछले महीने गिलगित-बाल्टिस्तान में 442 अरब डॉलर की लागत से एक बांध बनाने की परियोजना पर चीन की सरकारी कंपनी और पाकिस्तानी सेना की कमर्शियल शाखा ने हस्ताक्षर किए थे। भारत ने अपनी ज़मीन पर पाकिस्तान के अवैध कब्जे की बात दोहराते हुए इस परियोजना पर आपत्ति जताई थी।
पर्यावरण के क्षेत्र में सहयोग पर भारत, भूटान के बीच समझौता ज्ञापन को मंजूरी
यह समझौता ज्ञापन दोनों देश में लागू कानूनों और कानूनी प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए इक्विटी, पारस्परिक लाभों के आधार पर दोनों देशों को पर्यावरण के संरक्षण और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में निकट और दीर्घकालिक सहयोग को स्थापित और संवर्धित करने में सक्षम बनाएगा। ।
दोनों पक्षों के हितों और पारस्परिक रूप से सहमत प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए समझौता ज्ञापन में पर्यावरण से जुड़े वायु, अपशिष्ट, रासायनिक प्रबंधन,जलवायु परिवर्तन आदि क्षेत्रों को शामिल करने पर विचार किया गया है ।
यह समझौता ज्ञापन हस्ताक्षर की तिथि से लागू होगा और दस वर्ष की अवधि के लिए लागू रहेगा। प्रतिभागियों को समझौता ज्ञापन के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए सहयोग गतिविधियों को स्थापित करने हेतु सभी स्तरों पर संगठनों, निजी कंपनियों, सरकारी संस्थानों और दोनों ओर अनुसंधान संस्थानों को प्रोत्साहित करना होगा।
अमेरिका में नस्लीय हिंसा
पृष्ठभूमि
अमेरिका के मिनेसोटा राज्य के मिनेपोलिस शहर की पुलिस ने जॉर्ज फ्लायड नाम के अश्वेत युवक को गिरफ्तार किया। जॉर्ज पर 20 डॉलर के नकली नोट से सिगरेट खरीदने का आरोप था। पुलिस ने जॉर्ज को हथकड़ी लगाने के बाद ज़मीन पर उल्टा लिटा दिया। इसके बाद एक अफ़सर ने जॉर्ज की गर्दन को घुटने से दबा दिया।
इस दौरान जॉर्ज बार-बार पुलिस से घुटना हटाने को कहता रहा। वह कहता रहा कि उसे सांस नहीं आ रही। इसके बावजूद पुलिस ने अनसुना किया और जॉर्ज की मौत हो गई। इसका वीडियो वायरल होने के बाद हिंसा का दौर शुरू हुआ।
यह 6 साल में सबसे बड़ा प्रदर्शन, 2013-19 के बीच में पुलिस की हिंसा में 7666 लोगों की जान गई, इनमें 24% अश्वेत थे।
राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने ट्विटर हैंडल पर कहा कि "इस हिंसा के लिए 'एंटीफ़ा के नेतृत्व वाले अराजक तत्व' और 'कट्टर वामपंथ के झुकाव वाले अराजक तत्व' ज़िम्मेदार हैं."
एंटीफ़ा
1920 और 1930 के दशक में यूरोपीय फासीवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ मूवमेंट के साथ उनका समूह अस्तित्व में आया."एंटीफ़ा: द एंटी फ़ासिस्ट हैंडबुक" के लेखक मार्क ब्रे कहते हैं कि आधुनिक अमरीकी एंटीफ़ा मूवमेंट की शुरुआत 1980 के दशक से हुई थी. और इसकी शुरुआत हुई थी एंटी-रेसिस्ट एक्शन नाम के एक समूह से.
इस समूह के सदस्यों ने अमरीका की कुछ जगहों पर नव-नाज़ीवाद का विरोध किया. लेकिन 2000 के दशक की शुरुआत तक ये मूवमेंट लगभग ख़त्म हो गया. हाल के दिनों में डोनल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने और रुढ़िवादियों के उभार के बाद से एक बार फिर ये मूवमेंट सिर उठा रहा है.
इस समूह के लोग या इस विचारधारा से जुड़े लोग नव-नाज़ीवाद, नव-फ़ासीवाद, व्हाइट सुप्रिमेसिस्ट (गोरे लोगों को श्रेष्ठ मानने वाली विचारधारा) और नस्लीय भेदभाव जैसे रूढ़िवादी धुर-दक्षिणपंथी विचारधारा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं. हाल के दिनों में ये समूह धुर-दक्षिणपंथी विचारधारा का विरोध करता भी दिखा है.
स्रोत- बीबीसी हिंदी, भासकर डॉट कॉम
लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा विवाद
नेपाल ने नए नक्शे में लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को अपना क्षेत्र बताया है
नेपाल सरकार ने अपने नए नक्शे को संविधान में शामिल करने के लिए संसद में बिल पेश किया है। इस नए नक्शे में भारत के तीन इलाकों लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा शामिल हैं।विपक्षी पार्टियों ने भी इस मुद्दे पर सरकार को समर्थन देने का वादा किया है।
नया नक्शा नेपाल के सभी आधिकारिक कागजों में इस्तेमाल होगा। नेपाल अपने कोट-ऑफ-आर्म्स (देश के चिह्न) में भी नए नक्शे को शामिल करेगा है। इसके लिए संविधान की अनुसूची-3 में संशोधन की जरूरत है। बिल पर सदन में विचार-विमर्श होगा। दोनों सदनों से बिल के पास होने के बाद राष्ट्रपति इस पर दस्तखत करेंगे।
भारत ने लिपुलेख से धारचूला तक सड़क बनाई है। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने 8 मई को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए इसका उद्घाटन किया था, इसके बाद ही नेपाल की सरकार ने विरोध जताते हुए 18 मई को नया मानचित्र जारी किया था। इसमें भारत के कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को अपने क्षेत्र में बताया। 22 मई को संसद में संविधान संशोधन का प्रस्ताव भी दिया था। भारत ने नेपाल के सभी दावों को खारिज किया है। हाल ही में भारत के सेना प्रमुख एम एम नरवणे ने कहा था कि नेपाल ने ऐसा किसी और (चीन) के कहने पर किया।
नेपाल की सरकार को संविधान में संशोधन के लिए दो-तिहाई वोट की जरूरत है। सत्तारुढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी को निचले सदन को निचले सदन से प्रस्ताव पास कराने के लिए 10 सीटों की जरूरत है। इसलिए सरकार को दूसरी पार्टियों को भी मनाना पड़ रहा है। विपक्षी पार्टियों के सहमत होने पर माना जा रहा है कि यह बिल दोनों सदनों से पास हो जाएगा।
भास्कर डॉट कॉम
जी-7 समिट तथा कोरोना
पृष्ठभूमि
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा- अब जी-7 समिट सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक के पहले या उसके बाद हो सकती है
जी-7 में अमेरिका, फ्रांस, कनाडा, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान और इटली शामिल, सभी सदस्य देश बारी-बारी से सालाना समिट को होस्ट करते हैं
अमेरिका तथा जी -7
आखिरी बार अमेरिका में यह शिखर सम्मेलन 2012 में हुई थी। पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने मेरीलैंड के कैंप डेविड में सरकारी इमारत में शिखर सम्मेलन कराई थी। 2004 में पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने जॉर्जिया के सी आईलैंड रिजॉर्ट में इसे आयोजित किया था। अगस्त 2019 में जी-7 शिखर सम्मेलन फ्रांस के बियारिट्ज शहर में हुई थी।
जी -7
जी-7 दुनिया की सात सबसे बड़ी कथित विकसित और उन्नत अर्थव्यवस्था वाले देशों का समूह है, जिसमें कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, ब्रिटेन और अमरीका शामिल हैं. इसे ग्रुप ऑफ़ सेवन भी कहते हैं.
समूह खुद को "कम्यूनिटी ऑफ़ वैल्यूज" यानी मूल्यों का आदर करने वाला समुदाय मानता है. स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की सुरक्षा, लोकतंत्र और क़ानून का शासन और समृद्धि और सतत विकास, इसके प्रमुख सिद्धांत हैं.
शुरुआत में यह छह देशों का समूह था, जिसकी पहली बैठक 1975 में हुई थी. इस बैठक में वैश्विक आर्थिक संकट के संभावित समाधानों पर विचार किया गया था. अगले साल कनाडा इस समूह में शामिल हो गया और इस तरह यह जी-7 बन गया.
साल 1998 में इस समूह में रूस भी शामिल हो गया था और यह जी-7 से जी-8 बन गया था. लेकिन साल 2014 में यूक्रेन से क्रीमिया हड़प लेने के बाद रूस को समूह से निलंबित कर दिया गया था.
प्रत्येक सदस्य देश बारी-बारी से इस समूह की अध्यक्षता करता है और दो दिवसीय वार्षिक शिखर सम्मेलन की मेजबानी करता है. यह प्रक्रिया एक चक्र में चलती है. ऊर्जा नीति, जलवायु परिवर्तन, एचआईवी-एड्स और वैश्विक सुरक्षा जैसे कुछ विषय हैं, जिन पर पिछले शिखर सम्मेलनों में चर्चाएं हुई थीं.
शिखर सम्मेलन के अंत में एक सूचना जारी की जाती है, जिसमें सहमति वाले बिंदुओं का जिक्र होता है. सम्मेलन में भाग लेने वाले लोगों में जी-7 देशों के राष्ट्र प्रमुख, यूरोपीय कमीशन और यूरोपियन काउंसिल के अध्यक्ष शामिल होते हैं.
शिखर सम्मेलन में अन्य देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के प्रतिनिधियों को भी भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाता है. हर साल शिखर सम्मेलन के ख़िलाफ़ बड़े स्तर पर विरोध-प्रदर्शन होते हैं. पर्यावरण कार्यकर्ताओं से लेकर पूंजीवाद के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले संगठन इन विरोध-प्रदर्शनों में शामिल होते हैं.
प्रदर्शनकारियों को आयोजन स्थल से दूर रखने के लिए बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती की जाती है.
जी-7 कितना प्रभावी?
जी-7 की आलोचना यह कह कर की जाती है कि यह कभी भी प्रभावी संगठन नहीं रहा है, हालांकि समूह कई सफलताओं का दावा करता है, जिनमें एड्स, टीबी और मलेरिया से लड़ने के लिए वैश्विक फंड की शुरुआत करना भी है. समूह का दावा है कि इसने साल 2002 के बाद से अब तक 2.7 करोड़ लोगों की जान बचाई है.
समूह यह भी दावा करता है कि 2016 के पेरिस जलवायु समझौते को लागू करने के पीछे इसकी भूमिका है, हालांकि अमरीका ने इस समझौते से अलग हो जाने की बात कही है.
जी 7 की आलोचना
समूह की आलोचना इस बात के लिए भी की जाती है कि इसमें मौजूदा वैश्विक राजनीति और आर्थिक मुद्दों पर बात नहीं होती है. अफ्रीका, लैटिन अमरीका और दक्षिणी गोलार्ध का कोई भी देश इस समूह का हिस्सा नहीं है.
नया क्या है?
अब राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा है कि वे भारत, रूस, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया को भी इस बैठक में शरीक होने का न्योता देंगे.
भारत को क्यों शामिल करने की बात कही गयी?
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है।
भारत चीन के बाद दुनिया की उभरती हुई सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।
चीन को संतुलित करने में अमेरिका भारत का साथ चाहता है।
हॉन्गकॉन्ग संकट और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून
चीन के विधान मंडल ने हॉन्ग कॉन्ग के लिये विवादित राष्ट्रीय सुरक्षा विधेयक के मसौदे को बृहस्पतिवार को मंजूरी दे दी। इस विधेयक को अर्ध-स्वायत्त हॉन्ग कॉन्ग के कानूनी और राजनीतिक संस्थानों को कमजोर करने वाला बताकर इसकी कड़ी आलोचना की गई थी। नेशनल पीपुल्स कांग्रेस की स्थायी समिति ने राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने वाले चार प्रकार के अपराधों से संबंधित इस विधेयक की समीक्षा के बाद इसे मंजूरी दे दी।
इस कानून में मुकदमे का सामना करने के लिए आरोपियों को सीमा पार कर चीनी मुख्य भूभाग नहीं भेजा जाएगा। इस नए कानून से चीन की सुरक्षा एजेंसियों को पहली बार हॉन्ग कॉन्ग में अपने प्रतिष्ठान खोलने की अनुमति मिल जाएगी।
हांगकांग के मिनी-संविधान ‘बेसिक लॉ' के अनुच्छेद 23 में लिखा है कि देशद्रोह जैसे गंभीर मामलों में शहर को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू करना चाहिए. इससे पहले आज तक इस अनुच्छेद का इस्तेमाल नहीं किया गया है. हांगकांग में प्रेस और अभिव्यक्ति की आजादी के मूल्यों की काफी मान्यता रही है, जबकि मुख्य भूमि चीन में स्थिति इसके बिल्कुल उलट मानी जाती है. सन 1997 में जब अपने उपनिवेश हांगकांग को ब्रिटेन ने वापस चीन को सौंपा था तभी इन मूल्यों को सुरक्षित रखने को लेकर समझौता हुआ था.
हांगकांग की प्रतिक्रिया
हाल के महीनों में कोरोना के चलते लगी पाबंदियों के कारण इस कदम का सबसे ज्यादा विरोध सड़कों के बजाए इंटरनेट पर दिखाई दे रहा है. सोशल मीडिया साइटों, चैटिंग ऐप्स में हांगकांग के लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ता फिर से विरोध प्रदर्शन को शुरू करने का आह्वान कर रहे हैं. हांगकांग की सिविक पार्टी के सांसद डेनिस क्वॉक ने पत्रकारों से बातचीत में कहा, "इससे हांगकांग का अंत हो जाएगा, कोई ग़लतफहमी मत रखिएगा इससे ‘एक देश, दो व्यवस्था' का अंत होना तय है.”
मशहूर लोकतंत्र समर्थक एक्टिविस्ट जोशुआ वॉन्ग का कहना है कि आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले प्रदर्शनकारियों के लिए यह चीन का साफ संदेश है. वॉन्ग ने ट्विटर पर लिखा, "बीजिंग हांगकांग वासियों की आलोचना को अपनी ताकत और डर से चुप कराना चाहता है.”
कैसे ब्रिटेन के कब्ज़े में आया था हॉन्ग कॉन्ग?
1842 में हुए प्रथम अफीम युद्ध में चीन को हराकर ब्रिटिश सेना ने पहली बार हॉन्ग कॉन्ग पर कब्जा जमा लिया था। बाद में हुए दूसरे अफीम युद्ध में चीन को ब्रिटेन के हाथों और हार का सामना करना पड़ा। इस क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए 1898 में ब्रिटेन ने चीन से कुछ अतिरिक्त इलाकों को 99 साल की लीज पर लिया था। ब्रिटिश शासन में हॉन्ग कॉन्ग ने तेजी से प्रगति की।
चीन को सौंपने की कहानी
1982 में ब्रिटेन ने हॉन्ग कॉन्ग को चीन को सौंपने की कार्रवाई शुरू कर दी जो 1997 में जाकर पूरी हुई। चीन ने एक देश दो व्यवस्था के तहत हॉन्ग कॉन्ग को स्वायत्तता देने का वादा किया था। चीन ने कहा था कि हॉन्ग कॉन्ग को अगले 50 सालों तक विदेश और रक्षा मामलों को छोड़कर सभी तरह की आजादी हासिल होगी। बाद में चीन ने एक समझौते के तहत इसे विशेष प्रशासनिक क्षेत्र बना दिया।
चीन द्वारा ‘थाड’ का विरोध
दक्षिण कोरिया में अमेरिकी मिसाइल 'थाड' की तैनाती पर चीन ने आपत्ति दर्ज कराते हुए चेतावनी दी है कि इस तरह के कदम से क्षेत्र में अस्थिरता बढ़ जाएगी। चीन ने चेतावनी देते हुए कहा कि अमेरिका और दक्षिण कोरिया द्वारा कोरियाई क्षेत्र में मिसाइल रक्षा प्रणाली तैनात करने के योजनाओं से क्षेत्र अस्थिर हो जाएगा और ‘परमाणु मुक्त’ होने के लिए यह अनुकूल नहीं है।
क्यों कर रहा है विरोध?
हाल ही में अमेरिका व दक्षिण कोरिया द्वारा थाड (टर्मिनल हाइ अल्टीट्यूड एरिया डिफेंस) एंटी मिसाइल सिस्टम की तैनाती के बारे में पेंटागन व दक्षिण कोरियाई मंत्रालय ने संयुक्त रूप से घोषणा किया था।
टर्मिनल हाई आल्टीट्यूड एरिया डिफेंस या थाड़ (Terminal High Altitude Area Defense or THAAD), पूर्व में थिएटर हाई आल्टीट्यूड एरिया डिफेंस, एक अमेरिकन एंटी बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम है जिसे कम, मध्यम और मध्यवर्ती रेंज वाली बैलिस्टिक मिसाइलों को अपने टर्मिनल चरण (अवरोहण या पुनः प्रवेश) में नष्ट करने के लिए बनाया गया है।1991 में खाड़ी युद्ध के दौरान इराक के स्कड मिसाइल हमलों के अनुभव के बाद थाड़ विकसित किया गया था। थाड़ इंटरसेप्टर में कोई हथियार नहीं होता है, लेकिन यह आने वाली मिसाइल को नष्ट करने के लिए अपनी गतिज ऊर्जा की मदद लेती है।[ गतिज ऊर्जा की वजह से पारंपरिक वारहेड बैलिस्टिक मिसाइलों को विस्फोट करने का खतरा कम हो गया और परमाणु बटालियन मिसाइलों का हथियार गतिज ऊर्जा से हिट होने पर भी विस्फोट नहीं करेगा। थाड़ को संयुक्त अरब अमीरात, तुर्की और दक्षिण कोरिया में तैनात किया गया है।
थाड़ प्रणाली को लॉकहीड मार्टिन स्पेस सिस्टम्स द्वारा तैयार किया जा रहा है, जो इस कार्यक्रम का मुख्य ठेकेदार है।
ब्राजील के ट्रॉयजो ब्रिक्स बैंक के अध्यक्ष नियुक्त, भारत के अनिल किशोरा बने उपाध्यक्ष
ब्रिक्स समूह देशों के नव विकास बैंक (न्यू डेवलपमेंट बैंक) ने बुधवार को मार्कोस प्राडो ट्रॉयजो को अपना अध्यक्ष नियुक्त किया। वह ब्राजील के वित्त मंत्री रह चुके हैं। वह भारतीय बैंक अधिकारी के.वी. कामथ का स्थान लेंगे। कामथ 2015 से बैंक के अध्यक्ष थे। वह बैंक गठन के बाद बनने वाले पहले अध्यक्ष हैं। बैंक के निदेशक मंडल ने ट्रॉयजो के अलावा भारतीय स्टेट बैंक के अनिल किशोरा को नव विकास बैंक का उपाध्यक्ष नियुक्त किया है।
न्यू डेवलपमेंट बैंक
ब्रिक्स समूह देशों में भारत के अलावा ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका शामिल है। यह विकासशील देशों का सहयोग मंच है। नव विकास बैंक का मुख्यालय चीन के शंघाई में है।इस बैंक की शुरुआत 50 अरब डॉलर से हुई थी, जो बाद में बढ़कर 100 अरब डॉलर हो गई. इस बैंक में हर ब्रिक्स देश का 10 अरब डॉलर का योगदान है. ब्रिक्स देशों की आबादी दुनिया की कुल जनसंख्या का 41.4% है.
अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट
दुनियाभर में धार्मिक स्वतंत्रता की निगरानी करने का जिम्मा संभाल रहे एक अमेरिकी आयोग ने मंगलवार को विदेश विभाग से भारत समेत 14 देशों को ‘खास चिंता वाले देशों’ (कंट्रीज़ ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न- सीपीसी) के रूप में नामित करने को कहा और आरोप लगाया कि इन देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़ते जा रहे हैं.
अमेरिका अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग (यूएससीआईआरएफ) ने मंगलवार को जारी अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा कि इसमें नौ ऐसे देश हैं जिन्हें दिसंबर, 2019 में सीपीसी नामित किया गया था, वे म्यांमार, चीन, एरिट्रिया, ईरान, उत्तर कोरिया, पाकिस्तान, सऊदी अरब, तजिकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान हैं.उनके अलावा उसमें पांच अन्य देश- भारत, नाईजीरिया, रूस, सीरिया और वियतनाम
अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अपनी वार्षिक रिपोर्ट के 2020 के संस्करण में यूएससीआईआरएफ ने आरोप लगाया कि 2019 में भारत में धार्मिक स्वतंत्रता की दशा में बड़ी गिरावट आई एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमले तेज हो गए.
संयुक्त राज्य आयोग की अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर 2020 वार्षिक रिपोर्ट का खुलासा करते हुए द्विदलीय निकाय के अध्यक्ष ने कहा कि कुल मिलाकर धार्मिक स्वतंत्रता पर वैश्विक वातावरण में सुधार हुआ था, लेकिन पिछले साल भारत में तेजी से गिरावट देखी गई.
2004 के बाद से यह पहली बार है कि यूएससीआईआरएफ ने भारत को विशेष सूची में शामिल करने का प्रस्ताव दिया है.
आयोग की वार्षिक रिपोर्ट में दावा किया गया कि भारत सरकार ने ‘पूरे भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करते हुए, विशेष रूप से मुसलमानों के लिए राष्ट्रीय स्तर की नीतियों का निर्माण करने के लिए अपने संसदीय बहुमत का इस्तेमाल किया.’
वार्षिक रिपोर्ट में दिसंबर 2019 में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम का उल्लेख किया गया है, जो अफग़ानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आने वाले गैर-मुस्लिम प्रवासियों को फास्ट ट्रैक नागरिकता प्रदान करने वाला है.
इसके अलावा आयोग ने उल्लेख किया कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा में सरकार समर्थित तत्वों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
राष्ट्रीय और विभिन्न राज्य सरकारों ने भी धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ उत्पीड़न और हिंसा के राष्ट्रव्यापी अभियानों को जारी रखने की अनुमति दी और उनके खिलाफ हिंसा करने और नफरत फैलाने की छूट दी. इन घटनाओं के आधार पर इस रिपोर्ट में यूएससीआईआरएफ भारत को सीपीसी में नामित करने को कहता है.
अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 1998 के अनुरूप उन सरकारों को ‘विशेष चिंता वाले देशों’ के रूप में नामित किया जाता है जो धार्मिक स्वतंत्रता के व्यवस्थित, निरंतर और भयानक उल्लंघनों में या तो शामिल रहे हैं या जिन्होंने इन्हें सहन किया है.
दारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी रोड
पूर्वी लद्दाख में चीन की घुसपैठ से पैदा विवाद के बीच भारत रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण दारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी (डीएसडीबीओ) रोड को पूरा करने की कोशिश में है। 255 किलोमीटर लंबी इस सड़क पर इस साल के अंत तक आठ पुल बनाए जाने हैं और पूरी सड़क पर कोलतार की परत बिछाने का काम पूरा होना है। इस सड़क के तैयार होने पर सुरक्षा बलों को लेह से दौलत बेग ओल्डी तक पहुंचने में छह घंटे का समय कम हो जाएगा। चीन से पैदा तनाव के बीच सरकार अब इस रणनीतिक सड़क को कम समय में पूरा कर लेना चाहती है।
रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण इस सड़क को बनाने की योजना दो दशक से भी ज्यादा पुरानी है। लेकिन 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद इस योजना को गति मिली। सेना की उत्तरी कमान, सीमा सड़क संगठन और सेना की 81 वीं ब्रिगेड की देखरेख में इस सड़क के निर्माण का कार्य चल रहा है। यह सड़क सभी मौसमों में काम आएगी और इस पर से बर्फ हटाने की खास व्यवस्था की जा रही है। यह सड़क उस गालवान इलाके को भी छुएगी, जहां पर चीन के सैनिकों ने सीमा पार कर डेरा डाल लिया था। बाद में वहां से पीछे हट गए लेकिन उन्होंने अभी भी भारतीय जमीन खाली नहीं की है।
दौलत बेग ओल्डी भारत का सबसे उत्तरी कोना है और वहां तक एक सड़क का होना भारत के लिए वाकई अहम है. अक्साई चीन की सीमा रेखा के समानांतर चलने वाली DSDBO सड़क LAC से सिर्फ 9 किमी की दूरी पर है. इस सड़क की वजह से भारत अक्साई चीन, चिप चैप नदी और जीवन नल्ला से सटे इलाकों तक सीमाओं को मैनेज कर सकता है. इस सड़क से सेनाओं की जल्द तैनाती में भी मदद मिलेगी. इस सड़क से पहले सिर्फ एएलजी के रास्ते से ही इन इलाकों तक पहुंचा जा सकता था.
14 हज़ार फीट की ऊंचाई पर स्थित यह सड़क दरबूक से भारतीय सीमा के लद्दाख में स्थित आखिरी गांव श्योक तक पहुंचती है. लद्दाख को चीन के झिनजियांग प्रांत से अलग करने वाले काराकोरम पास और श्योक के बीच दौलत बेग ओल्डी स्थित है, 16 हज़ार फीट की ऊंचाई पर स्थित यह पहाड़ी मैदान भारतीय वायुसेना की सप्लाई के लिहाज़ से एडवांस्ड लैंडिंग ग्राउंड (ALG) की लोकेशन है.
गालवान वैली की सुरक्षा के लिहाज़ से DSDBO सड़क महत्वपूर्ण है और इस सड़क के कारण ही यहां भारत लगातार पैट्रोलिंग कर पा रहा है. अब तक चीन ने सीमाओं पर जो पोस्ट बनाई हैं, उनके ज़रिये वह गालवान वैली पर पूरी नज़र रख सकता है और इसलिए DSDBO पर चीन से खतरा भी है. चीन को इसी बात पर ऐतराज़ है और वो नहीं चाहता कि भारत इस तरह की सामरिक रणनीतियों पर आक्रामकता के साथ काम करे.
सिंध नदी के बेसिन में मौत की नदी कही जाने वाली श्योक नदी और उसकी शाखाएं हर मौसम में बाढ़ का कहर ढाती हैं. साथ ही यहां बर्फबारी का भी जोखिम रहता है. इसलिए दौलत बेग ओल्डी तक कंप्लीट की जा रही सड़क हर मौसम में कारगर साबित हो इसका पूरा ध्यान रखा गया है. सेना के पूर्वनिर्मित 37 पुलों को यह सड़क जोड़ती है. इसके अलावा, यहां पिछले साल अक्टूबर में 500 मीटर लंबे कर्नल चेवांग रिनचेन बेली ब्रिज की शुरूआत भी हो चुकी है, जो दुनिया का अपनी तरह के सामरिक महत्व वाला सबसे ऊंचा ऑल वेदर ब्रिज है.
दौलत बेग ओल्डी के पश्चिम में गिलगिट बाल्टिस्तान का क्षेत्र है, जहां चीन और पाकिस्तान की सीमाएं मिलती हैं. यह पूरा इलाका इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यहां यानी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चीन फिलहाल चीन पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर बना रहा है. इस पर भारत ऐतराज़ कर चुका है.
अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय और अमेरिका
पृष्ठ्भूमि
नीदरलैंड्स के हेग शहर में स्थित आईसीसी की ओर से जारी बयान के मुताबिक, “अपील चैम्बर ने पाया कि अभियोजक को जांच के लिए अधिकृत किया जाता है... ये कथित अपराध 1 मई 2003 से अफ़ग़ानिस्तान के क्षेत्र में किए गए और साथ ही वे अन्य कथित अपराध भी जिनका अफ़ग़ानिस्तान में सशस्त्र संघर्ष से संबंध है, और अफग़ानिस्तान में हालात से पर्याप्त ढंग से जुड़े हैं और जिन्हें अन्य सदस्य देशों के क्षेत्रों में अंजाम दिया गया.”
आईसीसी द्वारा जांच की ज़िम्मेदारी मुख्य अभियोजक फ़तू बेन्सूडा के पास होगी जिन्होंने नवंबर 2017 में पहली बार कोर्ट के प्री-ट्रायल चैम्बर में अपील दायर की थी.
आईसीसी अभियोजक के अनुरोध में उन सभी कथित दुर्व्यवहारों का भी ज़िक्र किया गया था जिन्हें अफ़ग़ानिस्तान में 1 मई 2003 के बाद अंजाम दिया गया.
आईसीसी अभियोजक फ़तू बेन्सूडा का मुख्य कार्य तालिबान व हक़्क़ानी नेटवर्क और अफ़गान राष्ट्रीय सुरक्षा बलों, नेशनल डायरेक्टरेट फ़ॉर सिक्योरिटी और अफ़ग़ान नेशनल पुलिस के सदस्यों द्वारा कथित युद्धापराधों व मानवता के विरुद्ध अपराधों की जांच करना होगा.
आईसीसी अभियोजक अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैन्यकर्मियों और ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए के सदस्यों द्वारा कथित युद्धापराधों की जांच करने के लिए भी तैयार है.
ये कथित अपराध वर्ष 2003-04 की अवधि में अफ़ग़ानिस्तान में गुप्त हिरासत केंद्रों में और "ऐसे देशों में हुए जो रोम संविधि" (Rome Statue) पर मुहर लगाने वाले देशों में शामिल हैं".
अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पेयो, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रॉबर्ट ओब्रायन, रक्षा मंत्री मार्क एस्पर और अटॉर्नी जनरल विलियम बार ने अपने निर्णय की जानकारी देते हुए उन आईसीसी अधिकारियों पर कार्रवाई किए जाने की घोषणा की थी जो अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका सहित सभी पक्षों द्वारा किए गए कथित युद्धापराधों की जाँच कार्य में जुटे हैं.अमेरिका की तरफ से कहा गया था कि सरकार आईसीसी अधिकारियों के परिजनों के खिलाफ वीजा संबंधी पाबंदियाँ लगाएगी। ग़ौरतलब है कि अफगानिस्तान में हुए युद्ध अपराधों की जांच की जिम्मेदारी आईसीसी द्वारा फतू बेंसूडा को दी गई है। उन्होंने नवंबर 2017 में पहली बार कोर्ट के प्री-ट्रायल चैंबर में इसको लेकर अपील दायर की थी। अमेरिका के अटॉर्नी जनरल विलियम बार ने आईसीसी को अफगानिस्तान में की जाने वाली जांच को लेकर गैरजवाबदेह अन्तरराष्ट्रीय कुलीन वर्ग का एक राजनैतिक औजार बताया था।
अंतरराष्ट्रीय कोर्ट की निगरानी करने वाली असेम्बली ऑफ स्टेट पार्टीज के अध्यक्ष ओ-गॉन क्वॉन (O-Gon Kwon, President of teh Assembly of States Parties) ने अमेरिकी सरकार के उस फैसले को खारिज कर दिया है जिसमें अफगानिस्तान में हुए कथित युद्ध अपराधों की जांच कर रहे आईसीसी अधिकारियों के खिलाफ यात्रा प्रतिबंध लगाने की बात कही गई है। क्वॉन ने अमेरिका की आलोचना करते हुए कहा कि ऐसे फैसलों से सामूहिक अत्याचारों की जवाबदेही तय करने के उनके प्रयास कमजोर पड़ जाएंगे।
क्वॉन ने आईसीसी की स्वतंंत्रता और निष्पक्षता को दोहराते हुए कहा कि कोर्ट का संचालन रोम संविधि के तहत स्थापित प्रणाली के अनुसार किया जाता है। इसमें स्पष्ट है कि अत्याचार संबंधी अपराधों की जांच, मुकदमे और न्याय प्रक्रिया का अधिकार-क्षेत्र सबसे पहले सदस्य देशों के ही पास है। उनका कहना है कि आईसीसी न्याय पाने की आखिरी उम्मीद है । क्वॉन ने कहा कि कोर्ट और असेंबली ऑफ स्टेट पार्टीज ने एक समीक्षा प्रक्रिया की शुरुआत की है। इसका लक्ष्य रोम संविधि को मजबूत करना और अत्याचार संबंधी अपराधों के मामलों में असरदार ढंग से जवाबदेही सुनिश्चित करना है।
अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय
मई, 2013 की स्थिति के अंतर्गत इसके 122 राष्ट्र सदस्य हैं। हालांकि चीन, भारत, रूस और अमेरिका न्यायालय के आलोचक हैं और वे इसमें शामिल नहीं हुए हैं।
आपराधिक मामलों की सुनवाई के लिये विश्व स्तर पर स्थापित एक न्यायालय की मांग उस समय प्रारंभ हुई जब राष्ट्र संघ ने एक वैश्विक न्याय तंत्र की चर्चा की थी। 1948 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक नर संहार अभिसमय का प्रयोजन किया। इस अभिसमय ने आपराधिक मामलों की सुनवाई के लिये एक अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण की मांग की। 1989 में अंतरराष्ट्रीय मादक द्रव्य तस्करी के संबंध में त्रिनिदाद और टोबैगो की शिकायत ने संयुक्त राष्ट्र संघ को अंतरराष्ट्रीय विधि सम्मेलन आयोजित करने के लिये प्रेरित किया, लेकिन न्यायालय के गठन में वास्तविक अभिप्रेरक का कार्य स्लोबोदान मिलोसेविक के नेतृत्व में बोस्निया-हर्जेगोविना के नर संहार ने किया (मिलोसेविक पर हेग स्थित अस्थायी अंतरराष्ट्रीय युद्ध अपराध न्यायाधिकरण में मुकदमा चल रहा है)।
17 जुलाई, 1998 को रोम में आयोजित सरकारी प्रतिनिधियों के एक कूटनीतिक सम्मेलन में आईसीसी संविधान पर 139 देशों ने हस्ताक्षर किए, सात देशों ने संविधान का विरोध किया, जबकि 22 देशों (जिसमें भारत भी सम्मिलित था) ने मतदान में भाग न लेकर तटस्थता की नीति अपनायी।
11 अप्रैल, 2002 को 10 देशों- बोस्निया-हर्जेगोविना, बुल्गारिया, कम्बोडिया, कांगो, आयरलैंड, जॉर्डन, मंगोलिया, नाइजर, रोमानिया और स्लोवाकिया, ने एक ही दिन न्यायालय के पक्ष में अपना अनुमोदन प्रस्तुत किया। इस प्रकार आईसीसी की स्थापना का अनुमोदन करने वाले राज्यों की संख्या 66 हो गयी। आईसीसी का संविधान 1 जुलाई, 2002 को प्रभाव में आया, तब तक 74 देशों ने इस संविधान का अनुमोदन कर दिया था।
न्यायालय में न सिर्फ देशों के विरुद्ध बल्कि व्यक्ति विशेष या व्यक्तियों के समूह (जिसमें संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति रक्षक बल भी सम्मिलित हैं) के विरुद्ध मुकदमा चलाया जा सकता है। न्यायालय में नर संहार, युद्ध अपराध, मानवता के विरुद्ध अपराध, आदि से संबंधित मुकदमे चलाये जा सकते हैं। न्यायालय में आक्रमण (aggression) के विरुद्ध भी मुकदमा चलाया जा सकता है लेकिन इसके लिये पहले आक्रमण की परिभाषा पर सदस्य राज्यों की सहमति आवश्यक है। न्यायालय का अधिकार क्षेत्र उस राज्य में होगा जहां आपराधिक घटना घटी है। उस राज्य में भी न्यायालय का अधिकार क्षेत्र होगा जहां का आरोपी व्यक्ति नागरिक है, लेकिन इसके लिए उस राज्य का न्यायालय के संविधान का एक पक्ष होना आवश्यक है। जो राज्य संविधान का सदस्य नहीं है, उसके समक्ष यह विकल्प होगा कि किसी अपराध विशेष के संबंध में वह आईसीसी को अपने राज्य में अधिकार क्षेत्र प्रदान करे या नहीं। अतः कोई भी विक्षुब्ध देश किसी मामले को न्यायालय में ला सकता है। साथ ही, संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद किसी मामले को आईसीसी को निर्दिष्ट कर सकती है।
आईसीसी केवल उन्हीं अपराधों की जांच कर सकता है, जो व्यापक प्रभाव वाले हैं या किसी नागरिक जनसंख्या पर सुनियोजित ढंग से किये गये आक्रमण के भाग हैं। आईसीसी युद्ध अपराधों की सुनवाई तभी कर सकता है जब ऐसे अपराध व्यापक स्तर पर या किसी योजना या नीति के अंतर्गत किए गए हों, लेकिन ऐसे सशस्त्र विद्रोह भी आईसीसी के अधिकार क्षेत्र में आयेंगे जो अंतरराष्ट्रीय चरित्र वाले नहीं हैं, जैसे- 1949 के जेनेवा अभिसमय की घोर अवव्हेलना।
बलात्कार, यौन दासता, आरोपित वेश्यावृत्ति, आरोपित गर्भाधान, आरोपित बन्ध्यीकरण या इस प्रकार के अन्य यौन अपराधों को भी मानवता के विरुद्ध किये गये अपराधों के रूप में स्वीकार किया गया है। आईसीसी के संविधान में पीड़ितों और कार्रवाई में सम्मिलित गवाहों की सुरक्षा के प्रावधान हैं।
सदस्य देशों की सभा के द्वारा एक न्यास कोष (Trust Fund) की स्थापना की जायेगी, जो पीड़ितों को क्षतिपूर्ति; मुआवजे, और; पुनर्वास के रूप में हरजाना प्रदान करेगा।
सीमाएँ
न्यायालय ऐसे मामलों की सुनवाई नहीं कर सकता, जो उसकी स्थापना से पहले घटित हुये हों। आक्रमण और आतंकवाद की स्पष्ट व सर्वसम्मत परिभाषा का अभाव इसकी एक अन्य कमजोरी है। ऐसे अपराध जो सदस्य देशों के अधिकार क्षेत्र से बाहर किये गये हैं, आईसीसी के अधिकार क्षेत्र में तब तक नहीं आते हैं, जब तक कि सुरक्षा परिषद संबंधित देश को ऐसे मामलों को आईसीसी में निर्दिष्ट करने के लिये दबाव नहीं डाले। न्यायालय ऐसे मामलों में भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता है, जिनकी सुनवाई राष्ट्रीय न्यायालयों में हो रही है या हो चुकी है। व्यापक जनसंहार वाले हथियार से संबंधित मामले भी आईसीसी के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते।
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