रेने देकार्त
आधुनिक युग के जनक कहलाने वाले रेने देकार्त एक गणितज्ञ थे तथा वह दर्शन को भी गणित की तरह निश्चित सिद्धांत वाला बनाना चाहते थे। इस उद्देश्य से उन्होंने दर्शन में ऐसी कई पद्धति प्रारम्भ की जो इनसे पहले के दार्शनिकों ने किसी निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए प्रयोग नहीं की थी।
इन्होंने मध्य कालीन यूरोप में प्रचलित धर्म तथा ईश्वर आधारित दर्शन का परित्याग कर बुद्धिवादी दार्शनिक पद्धति को अपनाया। इसके माध्यम से उन्होंने इस बात पर जोर दिया किया की हमारे अंदर ही ज्ञान निहित होता है तथा उस ज्ञान के ऊपर संदेह करते जाने से हम किसी सत्य तक पहुंच सकते है।
इन्होंने सत्य के खोज की संभावना को प्रत्येक व्यक्ति के अंदर निहित माना तथा प्रत्येक व्यक्ति को इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। इन्होंने इस बात को सिरे से नकार दिया की सत्य हमें केवल धमग्रंथो तथा धर्माधिकारियो से ही मिल सकता है। इस तरह इन्होंने व्यक्तिवाद पर बल दिया जो की आधुनिक यूरोपीय दर्शन की प्रमुख विशेषता है।
इनका दर्शन को देखने तथा समझने का दृष्टिकोण विज्ञान पर आधारित था. यह दर्शन को भी उसी तरह संदेह से परे बनाना चाहते थे जैसे दो और दो को जोड़ने पर जो उत्तर आता है वह हर परिस्थिति तथा काल में संदेह से परे होता है।
देकार्त दर्शन को केवल दिमागी कसरत नहीं मनाते थे,अपितु इसे वह सामान्य जीवन की एक विषय वस्तु मानते थे.इनका मनाना था की जिस राष्ट्र में जितने अधिक लोग दर्शन से प्रेरित होंगे वह राष्ट्र उतना ही अधिक सभ्य तथा सुसंस्कृत होगा।
इनका मानना था की दर्शन तभी सामान्य जीवन का हिस्सा बन सकता है जब यह नीति(एथिक्स ) से जुड़ा होगा। इसलिए इन्होंने नीति शास्त्र पर बहुत अधिक बल दिया है।
देकार्त की दार्शनिक पद्धति
प्रत्येक दार्शनिक का ध्येय किसी वस्तु या घटना के पीछे छिपे सत्य तक पहुँचना होता है। इसके लिए वह कई प्रकार की पद्धति को अपनाता है.यथा - आगमन पद्धति ,निगमन पद्धति,प्रश्नोत्तर पद्धति।
इसी में देकार्त ने सत्य के खोज के लिए संदेहवादी पद्धति को अपनाया। ऐसा नहीं की यह पद्धति पहले से प्रचलन में नहीं था। प्राचीन समय में इस पद्धति को अपनाने का श्रेय पायरो को जाता है ,परन्तु इस पद्धति को सुसंगत बनाने का श्रेय देकार्त को जाता है.
इस पद्धति में किसी घटना के पीछे छुपे हुए सत्य को जानने के लिए तब तक संदेह किया जाता है जब तक की दूध का दूध और पानी का पानी है ना हो जाए अर्थात ऐसा सत्य ज्ञात न हो जो सभी प्रकार के संदेहो से परे हो।देकार्त इस पद्धति के माध्यम से दर्शन को विज्ञान की तरह निश्चित बनाना चाहते थे जो हर काल तथा स्थान में संदेह से परे हो.
इस पद्धति को सत्य के खोज का माध्यम बनाने के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता की देकार्त ह्यूम की तरह संदेहवादी थे। उल्लेखनीय है की संदेहवादी से अभिप्राय ऐसे दार्शनिकों से है जो किसी स्पष्ट निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाते है। इस आधार पर देकार्त संदेहवादी दार्शनिक नहीं है क्योंकि उनका लक्ष्य स्पष्ट तथा संदेह रहित लक्ष्य तक पहुँचना था। उनकी पद्धति संदेह पर आधारित थी।
असंदिग्ध ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्होंने चार नियम दिए थे -
किसी निष्कर्ष या सत्य तक पहुंचने के लिए किसी भी तरह की जल्दबाजी न करना।
किसी घटना के पीछे के सत्य को जानने के लिए उस घटना से संबंधित विचारो को कई भागों में बाँट लेना। ताकि प्रत्येक भाग का ठीक तरह से परीक्षण किया जा सके.
सरल विचारो से कठिन विचारो की तरफ बढ़ना।
इस बात का प्रयास करना की कोई भी भाग या उस घटना से संबंधित कोई तथ्य या विचार छूट न जाए।
आत्मतत्व ( मैं सोचता हूँ अतः मैं हूँ )
देकार्त ने ईश्वर ,द्रव्य आदि पर अपने विचार प्रकट करने से पुर्व आत्मतत्व पर चिंतन करना प्रारंभ किया। इसके लिए उन्होंने अपनी संदेहवादी पद्धति को अपनाया। इस पद्धति के माध्यम से जब वह सोचना प्रारम्भ करते है तब वह ज्ञान के साधन के विषय में चिंतन करते है तथा वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते है की ज्ञान या तो इन्द्रियों के द्वारा अथवा इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होता है।
परन्तु,अगले ही क्षण उनके मन में यह प्रश्न उत्पन्न होता है की क्या इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होने वाला ज्ञान सत्य है या मेरा एक भ्रम मात्र है? इस प्रश्न के उत्तर में वह कहते है की कई बार मुझे रस्सी भी साँप की तरह नजर आता है। ऐसी स्थिति में इन्द्रियों पर पूरी तरह से विश्वास नहीं किया जा सकता।
लेकिन मैं कैसे यह कह दू की इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान पूरी तरह से भ्रम है क्योंकि इन्द्रियों के माध्यम से ही में किसी व्यक्ति विशेष से बात करता हूँ ,दुनिया के अद्भुत सौंदर्य को देखता हूँ। मेरे आस पास घटने वाली घटना को देखता हूँ।
अतः यह भी नहीं कह सकता की इन्द्रिया पूरी तरह से भ्रम उत्पन्न करती है। किंतु यह भी सत्य है की मैं कई बार सपने में भी लोगो से बाते करता हूँ ,किसी स्थल विशेष में घूमने चला जाता हूँ।
इस तरह देकार्त हर वस्तुओ ,घटनाओं पर प्रश्न करते है तथा किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास करते है। इन प्रयासों के बीच वह इस निष्कर्ष पर पहुंचते है की मान लो कोई घटना मेरे जीवन में घट रही हो वह सत्य हो या भ्रम,लेकिन इनके सत्य या भ्रम होने पर कौन विचार कर रहा हैं? निःसंदेह वह मैं ही जो इन पर विचार कर रहा हूँ तथा इन विचारो के माध्यम से किसी निष्कर्ष पर पहुंचने का प्रयास कर रहा हूँ।
इसलिए मैं सोचता हूँ अतः मैं हूँ।
आलोचना
1 देकार्त के द्वारा दिया गया यह वाक्य की मैं सोचता हूँ अतः मैं ही कोई मौलिक विचार नहीं है अपितु इनसे पहले ऑगस्टाइन तथा कैम्पानेला ने भी इसी तरह के विचार प्रस्तुत किये है। ऑगस्टाइन का वाक्य था मैं अपना निराकरण करूँ तो भी मेरी सत्ता स्वतः सिद्ध है।
2 ह्यूम कहते है कि सोचने की प्रक्रिया के आधार पर यह कैसा कहा जा सकता है की कोई स्थायी आत्मा का निवास मेरे अंदर है। क्योंकि जब में अपने अंदर झाँकने का प्रयास करता हूँ तो मुझे केवल बहुत सारे विचार नज़र आते है।
3 कांट कहते है की देकार्त के वाक्य मैं सोचता हूँ अतः मैं हूँ से आत्मा के विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती अपितु मैं के अस्तित्व की सिद्धि मात्र होती है।
4 रसैल कहते है की देकार्त के सूत्र वाक्य से केवल विचारो के अस्तित्व की सिद्धि होती है न की आत्मा की।
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