राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत चाहते हैं कि विधानसभा सत्र बुलाया जाए, लेकिन राज्यपाल कलराज मिश्र इसके खिलाफ हैं।इससे सवाल यह उठता है कि क्या कोई केंद्र सरकार की सिफारिश पर नियुक्त होने वाला राज्यपाल किसी राज्य की निर्वाचित सरकार के फैसले को पलट सकता है?
- तमाम सीनियर एडवोकेट और संविधान एक्सपर्ट कह रहे हैं कि राज्यपाल को संविधान में इतनी शक्ति नहीं है कि वह किसी भी निर्वाचित सरकार के फैसले को खारिज करें।
- सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसले भी यही इशारा कर रहे हैं कि राज्यपाल को देर-सबेर विधानसभा सत्र बुलाना ही होगा। गहलोत सरकार ने भी इसी वजह से दूसरा कैबिनेट नोट तैयार कर लिया है।
- विधानसभा सत्र बुलाने, उसका अवसान करने और सदन को भंग करने के राज्यपाल के अधिकारों का जिक्र संविधान के दो प्रावधानों में है।
- आर्टिकल 174 के तहत राज्यपाल निर्धारित वक्त और स्थान पर विधानसभा सत्र बुला सकता है। आर्टिकल 174 (2) (ए) कहता है कि सरकार समय-समय पर सदन का अवसान कर सकते हैं। वहीं, आर्टिकल 174 (2) (बी) राज्यपाल को विधानसभा भंग करने का अधिकार देता है।
- दूसरी ओर, आर्टिकल 163 कहता है कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करेगा। लेकिन यदि संविधान के लिए आवश्यक है तो वह बिना सलाह के भी अपने विवेक पर फैसले ले सकता है।
- मद्रास हाईकोर्ट ने 1973 में राज्यपाल के विवेकाधिकार से जुड़े प्रश्न पर कहा था कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह और सुझाव पर काम करने को बाध्य है।
सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल के विवेकाधिकार पर क्या कहता है?
- इस संबंध में 2016 में नबम रेबिया केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अरुणाचल में संवैधानिक संकट खड़ा हो गया था। इसमें कहा गया था कि राज्यपाल सिर्फ मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही काम करेगा।
- अरुणाचल में 20 बागी कांग्रेस विधायकों, 11 भाजपा विधायकों और एक निर्दलीय के संयुक्त अनुरोध पर राज्यपाल ने 14 जनवरी 2016 के बजाय 15 दिसंबर 2015 को ही सत्र बुला लिया था।
- यह विधायक स्पीकर और सरकार से खुश नहीं थे। उस समय रेबिया ही अरुणाचल प्रदेश के स्पीकर थे। तब उन्होंने राज्यपाल के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई थी।
- इस केस में कोर्ट ने यह भी कहा था कि यदि राज्यपाल के पास यह भरोसा करने के कारण है कि मंत्रिपरिषद सदन का विश्वास खो चुकी है तो फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया जा सकता है।
- स्रोत भास्कर डॉट कॉम
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