प्ली बारगेनिंग
हाल ही में विभिन्न देशों से संबंधित तब्लीगी जमात के कई सदस्यों को ‘प्ली बारगेनिंग’/दलील सौदेबाज़ी (Plea Bargaining) प्रक्रिया के माध्यम से अदालती मामलों से रिहा/मुक्त कर दिया गया है।
प्ली बारगेनिंग एक ऐसी सुविधा है, जिसके तहत कोई आरोपी अपने जुर्म का इक़बाल करता है और बदले में उसे कम सजा मिलती है।
यह सिर्फ उन आपराधिक मामलों में लागू होगी, जिनमें अधिकतम सात साल तक की कैद का प्रावधान है। महिलाओं, बच्चों, शेड्यूल्ड कास्ट और शेड्यूल्ड ट्राइब्स के खिलाफ अपराध, सती और नकली करंसी जैसे मामले इससे बाहर रखे गए हैं। इस हिसाब से यह एक सीमित सुविधा है।
इस सिस्टम के तहत आरोपी को मुकदमा चलने से पहले ही जज के सामने प्ली बारगेनिंग की अर्जी लगानी होगी। जज यह पक्का कर लेने के बाद कि इसमें कोई दबाव काम नहीं कर रहा है, आरोपी, पीड़ित व्यक्ति और प्रोजीक्यूटर को समझौते के लिए बातचीत की इजाजत देगा। समझौता इन सभी की पूरी रजामंदी और कोर्ट की मंजूरी से ही होगा। इसके तहत आरोपी अपना गुनाह कबूल करेगा, पीडि़त को मुआवजा देगा और बदले में उसे कम सजा मिलेगी। एक बार समझौता हो जाने के बाद उसके खिलाफ अपील नहीं की जा सकेगी।
प्ली बारगेनिंग का मकसद ही अदालतों के बोझ को कम करना और जल्द से जल्द न्याय दिलाना है। एक अंदाजा है कि भारत में ५० हजार मामलों में यह सिस्टम काम कर सकता है। अगर ऐसा हुआ, तो अदालतों को काफी राहत मिलेगी, जिन पर पहले ही लाखों मुकदमों का बोझ लदा हुआ है। जिन हालात में हमारा क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम काम कर रहा है, उनमें न्याय की तलाश सिर्फ एक सपना बन कर रह गई है। इस संकट से निकलने के लिए कुछ बड़े कदम जरूरी हैं और प्ली बारगेनिंग उनमें से एक है।
प्ली बारगेनिंग के खिलाफ अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि असरदार लोग इसका अपने पक्ष में गलत इस्तेमाल कर सकते हैं। यह बात दोनों पक्षों पर लागू होती है। मसलन किसी आरोपी पर झूठे आरोप मंजूर करने का दबाव पड़ सकता है, तो असरदार आरोपी अपनी सजा कम करने के लिए जबरन समझौता करा सकते हैं। ये आशंकाएं सही हैं, लेकिन किसी भी सिस्टम में गलत इस्तेमाल की गुंजाइश हमेशा बची रहती है। प्ली बारगेनिंग की कामयाबी इस बात पर निर्भर करेगी कि जज और प्रोजीक्यूटर अपना फर्ज निभाते हैं या नहीं। वे सतर्क रहें, तो इसका गलत इस्तेमाल नहीं हो सकेगा।