वायु प्रदुषण
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू.एच.ओ.) के अनुसार ‘वायु प्रदूषण एक एैसी स्थिति है जिसके अन्तर्गत बाह्य वातावरण में मनुष्य तथा उसके पर्यावरण को हानि पहुचाने वाले तत्व सघन रूप से एकत्रित हो जाते हैं।‘ दूसरे शब्दों में वायु के सामान्य संगठन में मात्रात्मक या गुणातात्मक परिवर्तन, जो जीवन या जीवनोपयोगी अजैविक संघटकों पर दुष्प्रभाव डालता है, वायु प्रदूषण कहलाता है।
वायु मण्डलीय प्रदूषण विश्व की राजनैतिक सीमाओं से परे हैं। यह अपने स्रोतों से दूर के वायुमण्डलों और मानवीय बस्तियों को प्रभावित करता है। मानवीय क्रिया कलापों से उत्पन्न प्रदूषण में विद्युत गृह (विशेषतः कोयले पर आधारित), अम्लीय वर्षा, मोटरवाहन, कीटनाशक, जंगल की आग, कृषि कार्यों द्वारा उत्पन्न कचरा, सिगरेट का धुआं, रसोई का धुआं आदि प्रमुख कारक हैं। इससे पूर्व इन कारकों पर विस्तार से चर्चा करें, वायु प्रदूषण का मनुष्य के स्वास्थ्य एवं जीव-जन्तुओं तथा पेड़-पौधें पर क्या दुष्प्रभाव पडता है इसको देखें-
वायु के प्रमुख प्रदूषक:
1- सल्फर डाई आक्साइड (SO2)
2- नाइट्रोजन आक्साइड (NO)
3- कार्बन मोनो आक्साइड (CO)
4- सालिड पार्टिकुलेट मैटेरियल (Solid Particulate material)
5- लौह कण
6- ओजोन (O3)
7- कार्बन डाई आक्साइड (CO2)
8- हाइड्रोकार्बन्स
9- मीथेन
10- कुछ धातुयें
11- विकिरण।
वायु प्रदूषण के स्रोत -
प्राकृतिक एवं मानवीय कारणों से वायु के दूषित होने की प्रक्रिया वायु प्रदूषण कहलाती है। अतः वायु प्रदूषण के दो मुख्य स्रोत हैं: प्राकृतिक एवं मानवीय।
प्राकृतिक स्रोत -
प्रकृति में ऐसे कई स्रोत हैं जो वायु मण्डल को दूषित करते हैं। यथा ज्वालामुखी क्रिया, दावाग्नि (वनों की की आग), जैविक अपशिष्ट इत्यादि। ज्वालामुखी विस्फोट के दौरान उत्सर्जित लावा, चट्टानों के टुकड़े, जल वाष्प, राख, विभिन्न गैसें इत्यादि वायुमण्डल को दूषित करते हैं। दावाग्नि या वनों की आग के कारण राख, धुंआ गैसें इत्यादि वायु को प्रदूषित करतीं है। दलदली क्षेत्रों में जैविक पदार्थो के सड़ने के कारण मीथेन गैस वायुमण्डल को दूषित करती है। इसके अतिरिक्त कोहरा, उल्कापात, सूक्ष्मजीव, परागकण, समुद्री खनिज भी वायु प्रदूषण में अहम भूमिका निभाते हैं। किन्तु प्राकृतिक स्रोतों से होने वाला वायु प्रदूषण अपेक्षाकृत सीमित एवं कम हानिकारक हैं।
मानवीयस्रोत -
मानव (मनुष्य जाति) के विभिन्न क्रिया कलापों द्वारा वायु प्रदूषण निरन्तर बढ़ रहा है। वायु प्रदूषण के प्रमुख मानवीय स्रोत निम्न हैं -
1- वनों का विनाश -
जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि के कारण कृषि भूमि, आवासीय भूमि, औद्योगीकरण इत्यादि मानवीय मांगों की पूर्ति बढ़ी है। जिसकी आपूर्ति वनों को काटकर की जा रही है। वनों की उपस्थिति में पर्यावरण पारिस्थितिकी तंत्र संतुलित रहता है वनों के विनाश के कारण यह असंतुलित हो गया है।
2- उद्योग/कल कारखाने (लघु, मध्यम, वृहद) -
वायु प्रदूषण के स्रोतो में उद्योग मुख्य कारक है। औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप सम्पूर्ण विश्व में औद्योगीकरण हुआ परन्तु साथ ही वायु मण्डलीय प्रदूषण जैसी गम्भीर समस्या में बढ़ोत्तरी हुई है। उद्योगों की चिमनियों से निकलने वाली विभिन्न गैसें जैसे कार्बन डाई आक्साइड, सल्फर मोनो आक्साइड, सल्फर के. आक्साइड, हाइड्रोकार्बन्स, धूल के कण, वाष्प कणिकायें, धुंआ इत्यादि वायु प्रदूषण का मुख्य कारक हैं।
3- परिवहन -
परिवहन वायु प्रदूषण का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कारण है। जनसंख्या वृद्धि के साथ ही परिवहन के साधनों में भी बहुतायत से वृद्धि हुयी है। स्वचालित वाहनों में प्रयुक्त पेट्रोल एवं डीजल के दहन के फलस्वरूप कई वायुप्रदूषकों की उत्पत्ति होती है यथा कार्बन मोनो आक्साइड, नाइट्रोजन एवं सल्फर के आक्साइड, धुंआ, शीशा आदि। एक स्वचालित वाहन द्वारा एक गैलन पेट्रोल के दहन से लगभग 5x20 लाख घनफीट वायु प्रदूषित होती है।
विश्व के सभी देशों में वाहनों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है और उससे उत्पन्न परिणाम समय समय पर (यथा कोहरा बनना) परिलक्षित हो रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार 33 प्रतिशत वायु प्रदूषण वाहनों से निकलने वाले धुंये के कारण होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के बडे शहरों में निर्धारित मानकों से वायु प्रदूषण का स्तर दो-तीन गुना अधिक है। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली में 70 लाख वाहन, मुम्ब्ई में दो लाख से ज्यादा आटो रिक्शा, 9 लाख से ज्यादा यात्री कारें, करीब 10000 टैक्सियां और 25 हजार से ज्यादा बसें और 3 लाख से ज्यादा वाणिज्यिक वाहन हैं। लखनऊ में सडक पर मौजूद 10 लाख वाहनों में हर रोज 200 नये वाहन जुड़ जाते है। जयपुर में 15 लाख वाहन बंगलुरू में 31 लाख वाहन हैं।
4- घरेलू कार्यों से -
मनव जीवन के संचालन हेतु ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इनमें घरेलू कार्य, उद्योग, कृषि, परिवहन आदि सम्मिलित हैं। घरेलू कार्यों जैसे भोजन पकाना, पानी गर्म करना आदि में कोयला, लकड़ी, उपले, मिट्टी का तेल, गैसें इत्यादि का प्रयोग ईंधन के रूप में होता है। इन जैविक ईधनों के दहन के फलस्वरूप विभिन्न विषैली गैसों का निर्माण होता है, जो कि वायुमण्डल को प्रदूषित करतीं हैं। इनसे कार्बन डाई आक्साइड, कार्बन मोनो आक्साइड, सल्फर डाई आक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड, कार्बनिक कण, धुंआ इत्यादि जैसे प्रदूषक निकलते हैं। परम्परागत ईंधन (लकड़ी, कोयला, उपला) की तुलना में रसोई गैस (एलपीजी) गैस अधिक प्रदूषण करती है। आधुनिक घरों में रेफ्रीजरेटर, एअर कण्डीशनरों का प्रयोग एक सामान्य सी बात है। इन विद्युत चालित उपकरणों से निकलने वाली क्लोरो-फ्लोरो कार्बन गैस (सीएफसी) वायुमण्डल में उपस्थित ओजोन परत की विनाश का सबसे अधिक उत्तरदायी कारक है।
5- ताप विद्युत गृह (thermal Power Station) -
जनसंख्या वृद्धि एवं बढ़ते औद्योगीकरण के अनुपात में बिजली की मांग भी बढ़ी है जिसकी पूर्ति कोयला, प्राकृतिक गैसों, खनिज तेलों, रेडियोधर्मी पदार्थां द्वारा की जाती है। ताप बिजलीघरों में कोयले, तेल एवं गैस का ईंधन के रूप में प्रयोग होता है। इनकी चिमनियों से निकलने वाली विभिन्न गैसें, कोयले की राख के कण वायुमण्डलीय प्रदूषण की मुख्य कारक है। 1000 मेगावाट की क्षमता वाले ताप विद्युत गृह को एक वर्ष में दो लाख साठ हजार टन से 104000 टन तक राख निकलती है। भारत में 54 प्रतिशत बिजली का उत्पादन कोयला आधारित विद्युत गृहों (लगभग 80 हजार मेगावाट) से ही होता है।
6- कृषि कार्य -
देश में हरित क्रान्ति के फलस्वरूप कृषि कार्यों में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग बढ़ा है। इसके साथ ही फसलों में विभिन्न कीटनाशकों का उपयोग किया जा रहा है। इन रासायनिक कीटनाशकों के छिड़काव के दौरान ये प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप् से वायुमण्डल में प्रविष्ट होकर शुद्ध वायुमण्डल संघटन को खराब करती हैं। अनेक कीटनाशी रसायनों का स्थायी प्रभाव अधिक खतरनाक है क्योंकि ये अपघटित होने में बहुत लम्बा समय लेते है या अपघटित नहीं होते जैसे सीडीटी, बीएचसी, डिएल्ड्रिन, एण्डोसल्फास आदि।
7 - खनन (Mining)
खनिज गतिविधि के दौरान विभिन्न विस्फोटकों का प्रयोग होता है जो कि वायु मण्डलीय प्रदूषण का कारण है। विभिन्न खनिजों के उत्खनन से उत्पन्न महीन कण भी वायुमण्डल को प्रदूषित करते हैं। भूमिगत खदानों से निकलने वाली हानिकारक गैसें भी वायुमण्डल के लिये हानिकारक हैं। नाभिकीय खनिजों के उत्खनन के समय उनसे निकलने वाले विकिरण विभिन्न व्याधियों का कारण है।
8 - रेडियो धर्मिता (Radio Activity)
रेडियोधर्मी पदार्थों से अल्फा, वीटा तथा गामा विकिरण अनवरत निकलते रहते हैं, जो पृथ्वी पर रहने वाले जीवधारियों के लिये अत्यन्त हानिकारक हैं। आणविक विस्फोटों एवं आणविक हथियारों के परीक्षण के दौरान रेडियोधर्मी पदार्थों से निकलने वाले विकिरण एवं उष्मा वायुमण्डल को दूषित करती है। परमाणु ऊर्जा संयत्रों में तकनीकी एवं मानवीय त्रुटियों में जब कभी रेडियोधर्मी विकिरण बाहर निकलते हैं तो वे वायु प्रदूषण का कारण बनते हैं।
9- रासायनिक पदार्थों एवं विलायकों द्वारा (Chemical Substances & Solvents)
प्रकृति में पाये जाने वाले या संश्लेषित कुछ ऐसे पदार्थ होते हैं। जिसके भौतिक या रासायनिक होने से भी वायु प्रदूषण होता है। रसायनशालाओं तथा उद्योगों में प्रयुक्त किये जाने वाले अनेक विलायकों द्वारा भी प्रदूषण फैलता है। रसायनों से सम्बधित कुछ उद्योगों से जैसे रबर, पेण्ट, प्लास्टिक आदि के निर्माण के दौरान विषैले उपउत्पाद प्राप्त होते हैं, जो वाष्पीकरण क्रिया के फलस्वरूप वायुमण्डल को प्रदूषित करते हैं।
10 - विकसित देशों की निर्यात सामग्री -
विकाससील देश विकसित राष्ट्रों से जो कि प्रौद्योगिकी एवं आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होते हैं। अनेक वस्तुओं का आयात करते हैं। विकसित देशों से सस्ते में मशीन एवं अन्य सामग्री घटिया एवं पुरानी होने के कारण प्रदूषण फैलाती हैं। विकसित राष्ट्रों में अनेक प्रतिबंधित घातक रसायन विकासशील राष्ट्रों को सस्ते दामों पर या दान में दिये जाते हैं, जो कि वायु प्रदूषण का मुख्य कारण होते हैं।
11- अन्य -
इसके अतिरिक्त निर्माण कार्यों, आग्नेय अस्त्रों के प्रयोग, आतिशबाजी इत्यादि से भी वायु-प्रदूषण होता है।
वायु प्रदूषण का वनस्पतियों पर प्रभाव -
मानव के साथ ही वनस्पति भी वायु प्रदूषण से उतनी ही प्रभावित हैं। वायु प्रदूषण का प्रभाव वनस्पति पर स्पष्ट रूप् से परिलक्षित होता है। अम्लीय वर्षा, घूप कोहरा, सल्फर डाई आक्साइड, फ्लोराइड्स, ओजोन, कार्बन मोनो आक्साइड इत्यादि पौधों की श्वसन वृद्धि, पुष्पीकरण, फलों का बनना आदि क्रियाओं मां बाधक बनते हैं। सल्फर डाई आक्साइड से पादप वृद्धि रुकती है। पत्तियों में पर्णरहित कम होकर हरित हीनता रोग उत्पन्न होता है। परागकणों के अंकुरण में कमी, बीज व फल बनने में बाधक है। नाइट्रोजन आक्साइड से पत्तियों का छोटा होना इत्यादि समस्यायें उत्पन्न होती हैं। फलोराइड्स से पत्तियों के किनारों एवं शीर्ष कोशिकाओं की क्षति होती है। परआक्सी एसिटाइल नाइट्रेट पत्तियों में स्टार्च की मात्रा को कम करता है। सीसा, पारा, कैडमियम जैसे कणीय पदार्थ पौधों में हरितहीनता रोग उत्पन्न करते हैं एवं वृद्धि को रोकते है। सीमेंट व कोयले क्षेत्र में कलियों का मृत होना भी एक समस्या है।
जन्तुओं पर -
वायु प्रदूषकों का दुष्प्रभाव जीव-जन्तुओं पर भी स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है। फलोराइड यौगिक प्रदूषक घास स्थूलों में जमा होकर खाद्य श्रृंखला में प्रवेश करके जन्तुओं को प्रभावित करते हैं जिससे पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ता है।
वायुमण्डल पर -
वायु प्रदूषको का सर्वाधिक प्रभाव वायुमण्डल पर पड़ता है। विभिन्न जहरीली गैसें, कणीय पदार्थ इत्यादि वायु प्रदूषकों से वायुमण्डल के आदर्श गैसीय संगठन में कई गड़बड़ियां उत्पन्न हो गयीं हैं।
वायु प्रदूषण नियंत्रण के उपाय
वायु प्रदूषण के घातक प्रभावों को देखते हुये विश्व के विकसित देशों में 1950-60 के दशक के बाद से ही तेजी से वायु प्रदूषण के नियंत्रण के उपाय व विकसित तकनीक का सहारा लिया जा रहा है। यहां सभी संपर्क क्षेत्रों या नाभिक स्थलीय उद्योगों, विकेन्द्री एवं सम्भावित प्रदूषण क्षेत्रों के निकट अनेक प्रकार के नियंत्रण एवं प्रबंधन सम्बन्धी कार्य प्रारम्भ किये गये हैं। यहां ऐसे सभी स्थानों एवं भीड़ वाली सड़कों के किनारे प्रदूषण मापन यन्त्र लगाये जा चुके हैं। प्रदूषण की सभी दशाओं में अधिकतम सहनशीलता की सीमा भी व्यापक रूप से निशिचित की जा चुकी है। सभी प्रदूषण पैदा करने वाले कारखानों द्वारा प्रदूषण नियंत्रण एवं प्रबंध हेतु वहां की सरकारों व प्रशासन के द्वारा निर्धारित मापदण्डों के अनुसार उपकरण व विशिष्ट तकनीक का उपयोग भी किया जाने लगा है।
भारत में भी 1970 के दशक से ही प्रदूषण के व्यापक प्रभावों के बारे में विशेष अध्ययन किये गये हैं। वर्तमान में सभी महानगरों एवं औद्योगिक केन्द्रों में प्रदूषण मापन के यन्त्र लगाना प्रशासन ने अनिवार्य कर दिया है। देश की कई संस्थायें इस काम में लगी हुई है। इनमें से नागपुर की (राष्ट्रीय पारिस्थितिकी एवं परिवेश शोध संस्थान), प्रमुख विश्वविद्यालयों के पर्यावरण विभाग, भारतीय टेक्नालाजी संस्थान, भाभा आणविक शोध केन्द्र, बम्बई, पर्यावरण नियोजन एवं समन्वयय की राष्ट्रीय समिति, भारत सरकार का केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं श्रम मंत्रालय आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन सभी कार्यों का परिवेश एवं नियोजन एवं समन्वय की राष्ट्रीय समिति से समन्वित कर उनके आधार पर विभिन्न प्रकार के नियम व कानून बनाने की एवं विशेष प्रदूषण नियंत्रण व तकनीक व उपकरण काम में लाने या आयात करने की सलाह दी जाती है। ऐसे सभी कार्यों के समन्वित करने के उद्देश्य से केन्द्रीय व राज्यों में पर्यावरण प्रबंधन संगठन की स्थापना की है।
भारत में वायु प्रदूषण नियंत्रण हेतु विशेष कार्यवाही 1980 के दशक से ही विचारणीय बनी एवं इस बारे में महानगरों में कुछ प्रारम्भिक कार्यवाही भी की जाने लगी है। 2-3 दिसम्बर 1984 को रात में हुयी भोपाल गैस दुर्घटना के बाद इस ओर विशेष प्रयास किये जाने लगे हैं। वायु प्रदूषण नियंत्रण हेतु निम्न प्रयास एवं कार्यवाही की आवश्यकता है।
1- सभी महानगरों (10 लाख या अधिक आबादी वाले) के आवासीय क्षेत्रों में पूर्व स्थापित प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को तत्काल पूर्व निर्धारित स्थानों में (औद्योगिक बस्तियों में) स्थानान्तरित किया जाना चाहिये। इससे उपलब्ध भूमि को बेचने मात्र से ही नवीन स्थान पर उद्योग स्थापित करने से भी कहीं ज्यादा आर्थिक लाभ भी होगा।
2- वायुमण्डल में घूल, नमी एवं धुंआ से उत्पन्न होने वाले घूम-कोहरा पर नियंत्रण हेतु अधिक धुंआ उगलने वाली चिमनियों की उंचाई 80-100 मी. कर दी जाये एवं उन पर धुंये से पुनः ठोस उप उत्पादन पैदा करने के संकेन्द्रण संयन्त्र लगाये जायें। दिल्ली, बम्बई एवं अन्य महानगरों में ऐसे प्रयास किये जाने भी लगे हैं।
3- 25 लाख से अधिक जनसंख्या वाले महानगरों में किसी भी स्थिति में 50 किमी. के घेरे में धुंआ उगलने वाले एवं वायुमण्डल में विशेष प्रदूषण पैदा करने वाले सभी प्रकार के उद्योगों की स्थापना पर राष्ट्रीय स्तर पर कड़ाई से प्रतिबन्ध लागू किया जायें। 10 लाख से 25 लाख जनसंख्या वाले बडे नगरों में भी ऐसी ही व्यवस्था का यथासम्भव पालन किया जाये।
4- जहां की मशीनों महीन कण उगलती हैं वहां उनको वायुमण्डल में फैलाने से रोकने हेतु मशीन-कपड़े या विशेष फिल्टर जालियों द्वारा उन्हें रोककर ऐसे पदार्थों को विशेष प्रक्रिया द्वारा पुनः एकत्रित किया जाये जिससे कि प्रदूषण के बचाव हेतु किये गये खर्चे अलाभकृत नहीं रहें। सीमेंट व पत्थर के पाउडर उद्योग आदि में इसे अनिवार्य किया जाना चाहिये।
5- जिस उद्योग में या निकट परिवेश में यदि प्रदूषण प्राकृतिक व मानवीय सम्मिलित कारणों से बढ जाये तो वहां पर श्रमिकों को विशेष नकाब काम में लाने चाहियें।
6- वाहनों से निकलने वाले धुंए को नियंत्रित करना एवं उनसे होने वाले सभी प्रकार के रिसाव को नियंत्रित करना प्रथम आवश्यकता से भी सभी वाहन निश्चित मापदण्ड से कम धुंआ उगलने वाले होने चाहिये अन्यथा उनमें ऊर्जा परिकरण एवं धुंआ नियंत्रण हेतु विशेष सुधार किये जायें, जिन क्षेत्रों में यातायात संग्रन्थियों पर धुंए का प्रतिशत विशेष बढ जायें वहां फौरन वाहनों के प्रभाव को नियंत्रित किया जाये। ऐसे स्थलों को एक दिशा प्रवाह मार्ग घोषित कर, वहां तत्काल सहायक मार्ग विकसित किये जायें।
7- नहर सडक मार्गो व रेल मार्गों के आसपास हरी पट्टी का अनिवार्यतः विकास किया जाये। पेड़ नियमित रूप से लगाकर उनका पूरा-पूरा रख-रखाव किया जाय और रिकार्ड रखा जाये। भवनों में जहां भी स्थान उपलब्ध हो पेड़ आवश्यक रूप से लगाये जायें।
8 - जहरीली गैस की आण्विक संस्थानों में पूर्णतः मुक्त प्रणाली (Full proof Device) निश्चित की जाये जिससे उसकी व्यवस्था प्रणाली की क्रियाशीलता का एक निर्णायक नियंत्रण बना रहे।
9- आण्विक इकाइयों से निकलने वाले सभी रेडियोधर्मी पदार्थों को विशेष प्रक्रिया द्वारा ठोस ईंटों में बदलकर पोलीथीन में उन्हें बन्द कर, विशेष डिब्बों में बन्द कर, दोहरे कवर वाले विशेष डिब्बों में भण्डारित किया जाये। इन्हें सागर तली में डालने से पूर्व सीमेंट की या कंक्रीट की टंकियों में सील कर समुद्र में डाल दिया जाये जिससे कि वह महासागरीय तलों में भी रेडियोधर्मिता जल्दी नहीं बढ़ सके।
स्रोत - डाउन टू अर्थ ,इंडिया वाटर पोर्टल
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