हाथी तथा मानव संघर्ष
जीवाश्मों से पता चलता है कि किसी समय बोर्नियों में भी हाथी थे, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि वे वहाँ के मूल निवासी थे या 1750 के दशक में वहाँ लाकर छोड़े गए बंदी हाथियों के वंशज हैं। अभी मुख्य रूप से हाथी सबाह (मलेशिया) और कालिमंतन (इंडोनेशिया) के एक छोटे क्षेत्र तक सीमित हैं। हाथी पश्चिम एशिया, भारतीय महाद्वीप के अधिकांश हिस्से, दक्षिण-पूर्व एशिया के काफ़ी हिस्से और लगभग समूचे चीन (युन्नान प्रांत के दक्षिणी क्षेत्रों को छोड़कर) से विलुप्त हो चुके हैं। इसके क्षेत्र के पश्चिमी हिस्सों की शुष्कता, पालतू बनाए जाने के लिए बड़े पैमाने पर बंदी बनाने (जो लगभग 4,000 साल पाहले सिंधु घाटी में शुरू हुआ था), मानव आबादी के लगातार बढ़ने से इनके पर्यावास में कमी और इनका शिकार, इनके क्षेत्र व संख्या में कमी के प्रमुख कारण हैं।
भारतीय हाथी
भारतीय हाथियों के अफ़्रीकी हाथियों के मुक़ाबले कान छोटे होते हैं, और माथा चौड़ा होता है। मादा के हाथीदाँत नहीं होते हैं। नर मादा से ज़्यादा बड़े होते हैं। सूँड अफ़्रीकी हाथी से ज़्यादा बड़ी होती है। पंजे बड़े व चौड़े होते हैं। पैर के नाख़ून ज़्यादा बड़े नहीं होते हैं। अफ़्रीकी पड़ोसियों के मुक़ाबले इनका पेट शरीर के वज़न के अनुपात में ही होता है, लेकिन अफ़्रीकी हाथी का सिर के अनुपात में पेट बड़ा होता है।
भारतीय हाथी लंबाई में 6.4 मीटर (21 फ़ुट) तक पहुँच सकता है; यह थाईलैंड के एशियाई हाथी से लंबा व पतला होता है। सबसे लंबा ज्ञात भारतीय हाथी 26 फ़ुट (7.88 मी) का था, पीठ के मेहराब के स्थान पर इसकी ऊँचाई 11 फुट (3.4 मीटर), 9 इंच (3.61 मीटर) थी और इसका वज़न 8 टन (17935 पौंड) था।
भारतीय हाथी का वज़न लगभग 5,500 किलोग्राम और कंधे तह ऊँचाई 3 मीटर होती है; इसके कान अफ़्रीकी हाथी की तुलना में काफ़ी छोटे होते हैं। हाथियों में चर्वणक दाँत एक साथ ही पैदा नहीं होते; बल्कि पुराने दाँत के घिस जाने पर नया पैदा हो जाता है, लगभग 40 वर्ष की आयु में चर्वणक दाँतों का छठा और अंतिम जोड़ा निकलता है, इसलिए बहुत कम हाथी इससे अधिक आयु तक जीवित रह पाते हैं।
हाथी की औसत आयु 60 वर्ष की होती है, यद्यपि कुछ हाथी 70 वर्ष तक जीते पाए गए हैं। जन्म के समय बच्चा 1 मीटर ऊँचा और 90 किलोग्राम भार का होता है। तीन चार वर्षों तक हथिनी बच्चे को दूध पिलाती है और सिंह, बाघ, चीते आदि से बड़ी सर्तकता से उसकी रक्षा करती है।
जंगलों में हाथी वरिष्ठ हथिनी के नेतृत्व में छोटे पारिवारिक समूहों में रहते हैं। जहाँ भरपूर भोजन उपलब्ध होता है, वहाँ झुंड बड़े भी हो सकते हैं। अधिकांश नर मादाओं से अलग झुंड में रहते हैं। भोजन और पानी की उपलब्धता के अनुसार, हाथी मौसमी प्रवास करते हैं। वे कई घंटे भोजन करने में बिताते है और एक दिन में 225 किलोग्राम घास और अन्य वनस्पति खा सकते हैं। एशियाई हाथी अफ़्रीकी हाथी की तुलना में छोटा होता है और उसके शरीर का उच्चतम बिंदु कंधे के बजाय सिर होते हैं, सामने के पैरों पर नाख़ून जैसी पांच संरचनाएं और पिछले पैरों पर चार संरचनाएँ होती हैं। हाथी के पैर स्तंभ की भाँति सीधे होते हैं। खड़ा रहने के लिए इसे बहुत कम पेशी शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। जब तक बीमार न पड़े या घायल न हो, तब तक अफ़्रीकी हाथी कदाचित् ही लेटता है। भारतीय हाथी प्राय: लेटते हुए पाए जाते हैं। हाथी की अँगुलियाँ त्वचा की गद्दी में धँसी रहती हैं। गद्दी के बीच में चर्बी की एक गद्दी होती है, जो शरीर के भार पड़ने पर फैल जाती और पैर ऊपर उठाने पर सिकुड़ जाती है। हाथी की त्वचा एक इंच मोटी पर पर्याप्त संवेदनशील होती है। त्वचा पर एक-एक इंच की दूरी पर बाल होते हैं। इसकी खाल खोल के सदृश और झुर्रीदार होती है। खाल का भार एक टन तक का हो सकता है।
आमतौर पर सिर्फ़ नरों के ही गजदंत होते हैं, जबकि अफ़्रीकी हाथियों में नर और मादा, दोनों में गजदंत पाए जाते हैं। हाथियों में घ्राणशाक्ति अत्यंत विकसित होती है और इसके ज़रिये वे ख़तरों का पता लगाते हैं तथा बांस के घने झुंडों में नरम कॉपल जैसे मनपसंद आहार ढूंढते हैं। खाते समय हाथी इस प्रकार खड़े होते है कि सबसे बड़ी हथिनी हवा की दिशा में खड़ी हो और बच्चे उसे ढूंढ सकें।
एशियाई हाथी किसी भी समय भोजन कर सकते हैं, लेकिन 24 घंटों में दो मुख्य भोजनकाल होते हैं। वयस्कों की गतिविधियों का 72 से 90 प्रतिशत हिस्सा भोजन ढूंढने और उसे खाने में बीतता है।
हाथी तथा मानव संघर्ष का कारण
पिछले दस साल में सिर्फ झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में जंगली हाथी एक हज़ार लोगों को मार चुके हैं. इसी अवधि में सिर्फ झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में एक सौ सत्तर से ज़्यादा हाथी भी मारे जा चुके हैं. पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत की कहानी भी इससे बहुत अलग नहीं.
ग्रीनपीस इंडिया द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार छत्तीसगढ़ में हाथियों की संख्या लगातार बढ़ी है। ओडिशा और झारखंड में जंगलों की अंधा-धुंध कटाई की वजह से 80 के दशक में हाथियों ने राज्य के जंगलों की तरफ पलायन करना शुरू किया था। इसके परिणामस्वरुप मानव-हाथी संघर्ष बढ़ने से मानव मौत, जानवर और संपत्ति को नुकसान पहुंचा है। हाथियों के हमले से मरने वाले लोगों की संख्या में आठ गुनी वृद्धि हुई है। साल 2005 के बाद 25 लोगों की औसत मृत्यु प्रति साल दर्ज की गयी है।इस रिपोर्ट के अनुसार, साल 2005 से 2013 के बीच छत्तीसगढ़ में 14 हाथियों की बिजली के झटके से मौत हुई। इस अवधि में मानव-हाथी संघर्ष की वजह से 198 मानव मौत हुई। राज्य में 2004 से 2014 के बीच 8, 657 घटनाएँ संपत्ति नुकसान और 99,152 घटनाएँ फसल नुकसान की दर्ज की गयी। इस अवधि में मानव-हाथी संघर्ष की वजह से 2,140.20 लाख मुआवजे की राशि का भुगतान किया गया।
संयोग से, अध्ययन क्षेत्र में स्थित अधिकांश कोयला ब्लॉक में हाथियों की उपस्थिति दर्ज की गयी है, जिसे सरकार ने खनन के लिये पहचान किया है। इन वन प्रभागों में पहले से ही राज्य की औसत 30 प्रतिशत मानव मौत और फसल नुकसान की घटनाएँ होती हैं। इसलिए, यहां के जंगलों के खनन में बदलने से मानव-हाथी संघर्ष में बढ़ोत्तरी हो सकती है।निम्न कारणों से मानवों तथा हाथियों के मध्य संघर्ष लगातार बढ़ता जा रहा है -
- मानवो की बढ़ती जनसँख्या।
- हाथियों के प्राकृतिक पर्यावास का काम होना।
- हाथियों के आवासों में बढ़ती विकास की परियोजनाएँ।
- पूर्वी और मध्य भारत में हाथियों का घर 23,500 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला है. यानी झारखंड से लेकर पश्चिम बंगाल, ओडिशा और छत्तीसगढ़ तक इनकी आवाजाही का गलियारा फैला हुआ है ये गलियारा टूट रहा है जिससे आबादी में उनकी घुसपैठ पहले से ज़्यादा हो गई है. हाथियों का गलियारा कई राज्यों से होकर गुजरता है और हर राज्य का अपना जंगल महकमा है, जिनमें समन्वय की कमी है.
- भारत में साल 2007 से 2009 तक 367 वर्ग किलोमीटर जंगल कम हुए हैं. वन विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक़ 80 फ़ीसदी जंगलों के ग़ायब होने की वजह आबादी का पास आना है जबकि 20 प्रतिशत औद्योगिकीकरण है. यहाँ तक कि आदिवासी बहुल ज़िलों में भी 679 वर्ग किलोमीटर के वनोन्मूलन की बात रिपोर्ट में कही गई है.
- जंगल कम होने के कारण न सिर्फ जंगली हाथियों का गलियारा टूट रहा है, बल्कि उनके खाने के लाले भी पड़ रहे हैं. मसलन जंगलों में बांस और फलदार वृक्ष कम हो रहे हैं. उन्हें पता है कि अपना पेट भरने के लिए उन्हें किस तरफ रुख़ करना चाहिए. अक्सर वे इन्सानी बस्तियां ही होती हैं.
- 'वाइल्डलाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया' ने कई इलाकों को हाथियों के कॉरीडोर के रूप में चिह्नित किया है. मगर उनका कहना था कि राज्य सरकारें इन कॉरीडोर के संरक्षण के लिए कुछ नहीं कर रहीं हैं.
- हिंसक पशुओं को अधिक संख्या में रखने की क्षमता वाले वनक्षेत्रों में इन जानवरों की संख्या कम है जबकि कम क्षमता वाले वन क्षेत्रों में क्षमता से काफी अधिक पशु रहने को मजबूर है। जिससे मनुष्य एवं कृषि संपदा को नुकसान पहुंचाने वाले बाघ, हाथी और नीलगाय जैसे जानवर वनक्षेत्र के तटीय इलाकों के आबादी क्षेत्रों में घुस जाते हैं।
- हाथियों के उग्र होने का मुख्य कारण अपने रास्ते के लिए उनका बेहद संवेदनशील होना भी है. जुलाई से सितंबर के दौरान हाथी प्रजनन करते हैं. इस समय हाथियों के हार्मोन में भी बदलाव आता है जिससे वो आक्रमक हो जाते हैं.
समाधान
- वन्य पशुओं के कारण हुई मानवीय मौतों को रोकने के लिए उनके आगमन की या स्थिति की सही जानकारी देने वाले तंत्र के विकास की आवश्यकता है। जैसे कि हाथी अक्सर झंुड में चलते हैं और उनकी गतिविधियों की दिशा की जानकारी वन विभाग को मिलती रहती है। हाथी-बहुल इलाकों में वन विभाग कुछ सड़कों को रात के समय बंद भी कर देता है, तथा वहाँ हाथियों से सावधान रहने संबधी चेतावनी भी लगा दी जाती है।
- आज वन्य जीवन संरक्षणकर्ता अनेक प्रकार के आधुनिक यंत्रों से लैस होते हैं। उनके पास एस एम एस एलर्ट के लिए मोबाइल फोन, वन्यपशु की स्थिति की जानकारी के लिए स्वचालित (Automated) प्रणाली एवं चेतावनी देने वाले तंत्र होते हैं। इनकी मदद से वन्य पशुओं की गतिविधियों को जानकर मानव-जीवन की, फसल की एवं संपत्ति की रक्षा की जा सकती है।
- जंगलों के मध्य बसे गांवों में सुरक्षित आवास, बिजली की उपलब्धता, घर में शौचालयों के निर्माण एवं इन क्षेत्रों को अच्छी परिवहन सेवा से जोड़कर मानव-वन्यजीवन संघर्ष को बहुत कम किया जा सकता है।
- पशुओं के आवास को खनन या मानव बस्तियों के लिए उजाड़ा जा रहा है। पशु किसी भी खेत में तब घुसते हंै, जब वह खेत उनके आवासीय क्षेत्र के आसपास हो, फसल खाने योग्य हो, जल स्त्रोत के पास हो या पशुओं के विचरण क्षेत्र में आते हों। ऐसे खास स्थानों को पहचानकर उनकी बाड़बंदी या बिजलीयुक्त बाड़ लगवाई जा सकती है।
- पर्यावरण मंत्रालय ने राष्ट्रीय फसल बीमा योजना में वन्य पशुओं के कारण हुई फसल- क्षति को भी बीमा में शामिल करने की सिफारिश की है।
- विनाशकारी पशुओं पर आरोप लगाने की बजाय ऐसे समस्याग्रस्त जगहों की पहचान करके वहाँ के लोगों को समय-समय पर सतर्क किया जाना चाहिए।
- स्थानीय जनता और वन विभाग कर्मचारियों को पशुओं से बचने के लिए प्रशिक्षित एवं सशक्त बनाने की बहुत जरूरत है।
- छत्तीसगढ़ में भी उग्र हाथियों के ऊपर जी पी एस लगाया जा रहा है जिसकी वजह से हाथियों के मूवमेंट के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलने लगी है।
- हाथी परियोजना की शुरुआत फरवरी 1992 में की गई थी, जिसके अंतर्गत हाथियों की मौजूदा आबादी को उनके प्राकृतिक आवास स्थलों में दीर्घकालिक जीवन सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त आर्थिक, तकनीकी एवं वैज्ञानिक सहायता उपलब्ध कराना है। हाथी टास्क फोर्स की रिपोर्ट, गज , जंगल में और कैद में हाथियों की रक्षा के लिए और मानव हाथी संघर्ष के समाधान के लिए एक व्यापक कार्रवाई कार्यसूची तैयार करती है।हाथी परियोजना मुख्य रूप से इन 13 राज्यों/संघशासित क्षेत्रों में चलाई जा रही है : आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, असम, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मेघालय, नागालैंड, ओडिशा, तमिलनाडु, उत्तरांचल, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल. छोटी सहायता महाराष्ट्र और छतीसगढ़ को भी दी जा रही है.
- छत्तीसगढ़ के वन परिक्षेत्र अंतर्गत महेशपुर, काडरो, झिमकी, कर्राब्यौरा एवं समीप के अन्य जंगलों में 30 से अधिक हाथियों ने डेरा जमाने के बाद आस-पास के ग्रामीणों को जागरूक करने के लिए रोगबहार की झंकार नुक्कड़ नाटक करने वाली मंडली गांव-गांव पहुंच कर गीत और नाटक से लोगों को सबसे पहले अपनी सुरक्षा के उपाय बता रही है। नुक्कड़ नाटक लोगों को समझाने का सशक्त माध्यम होता है और उसका असर भी गहरा होता है। यहां हाथी और मानव के बीच चल रहे द्वंद्व को कम करने में यह माध्यम कारगर साबित हो रहा है। जिससे इस वर्ष जिले में लगातार जन और धन हानि के आंकड़े कम होने लगे हैं।
- हाथियों की रिहाइश वाले वनों से गुजरते समय ट्रेनों की गति घटाने के उपाय किये जाये ;
- वनों से गुजरने वाले रेल-मार्गों को बदला जाये।
- जिन क्षेत्रों में ये दुर्घटनाएँ देखने में आई हैं, उनमें रात को मालगाड़ियों की आवाजाही बंद करे.
स्रोत - THE PRINT,DOWN TO EARTH,GAON COLLECTIONS,bharat discovery
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