Skip to main content

मूल अधिकार

         मूल अधिकार

Purnima verma

fundamental rights

भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषता है, कि यहां प्रत्येक व्यक्ति को विस्तृत रूप से मूल अधिकार प्रदान किए गए हैं। मूल अधिकार वे अधिकार होते हैं, जो प्रत्येक व्यक्ति को जन्म से  नैसर्गिक रूप से प्राप्त होते हैं। इन अधिकारों के अभाव में संविधान की कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्योंकि ऐसे अधिकार व्यक्ति को जन्म से प्राप्त होते हैं जोकि मृत्यु तक बने रहते हैं अतः मूल अधिकार को भारतीय संविधान में 6 प्रकार की मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है। मूल अधिकारों का जितना विस्तृत वर्णन भारतीय संविधान में किया गया है। उतना विश्व के किसी अन्य देश की संविधान में नहीं किया गया है।  यह लक्षण भारतीय संविधान में मूल अधिकार के महत्व को परिलक्षित करती है।

                          

                        इस लेख में हम निम्न बिंदुओं पर चर्चा करेंगे-

  • मूल अधिकार का उद्भव एवं विकास

  • मूल अधिकार की परिभाषा 

  • मूल अधिकार प्रदान किए जाने का उद्देश्य 

  • मूल अधिकार की विशेषताएं 

  • मूल अधिकार का निर्वचन 

  • भारतीय संविधान द्वारा प्रदान किए गए मूल अधिकार 

  • निष्कर्ष


मूल अधिकार का उद्भव एवं विकास

भारतीय संविधान द्वारा अध्याय 3 रखे गए मूल अधिकार को भारत का अधिकार पत्र कहा जाता है। इस अधिकार पत्र द्वारा ही अंग्रेजों ने सन 1215 में इंग्लैंड के सम्राट जॉन से नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा प्राप्त की थी, इंग्लैंड के सम्राट जॉन द्वारा प्रदान किए गए अधिकार पत्र को ही प्रथम मूल अधिकार से संबंधित लिखित दस्तावेज माना जाता है। इसीलिए इसे ही मूल अधिकारों के जन्मदाता के रूप में जाना जाता है। इसके पश्चात 1689 में बिल ऑफ राइट्स के माध्यम से नागरिकों को  महत्वपूर्ण अधिकार एवं स्वतंत्रता प्रदान किया गया। इसी क्रम में 1789 फ्रांस में जनता के मूल अधिकार की एक पृथक दस्तावेज की घोषणा की गई, जिसे नागरिकों के अधिकार की घोषणा पत्र कहां गया। इस प्रकार मनुष्य को प्राप्त प्राकृतिक अधिकारों को एक दस्तावेज में उल्लेखित कर प्रदान करने का संघर्ष बहुत लंबा एवं कठिन था।

                        सर्वप्रथम इन अधिकारों को अमेरिका ने पूर्ण संवैधानिक दर्जा प्रदान किया, जिसे बिल ऑफ राइट्स के रूप में जाना जाता है।इस प्रकार भारतीय संविधान में भी संविधान निर्माताओं ने मूल अधिकारों को संविधान में विस्तृत रूप से समाविष्ट किया है।


मूल अधिकार की परिभाषा 

भारतीय संविधान में मूल अधिकार की परिभाषा नहीं दी गई है। मूल अधिकार वास्तव में प्राकृतिक और अप्रतिदेय अधिकार माना जाता है। संविधान निर्माण से पूर्व इन अधिकारों द्वारा  शासकों पर अंकुश रखने का प्रयास किया गया था। इंग्लैंड में मूल अधिकार वे अधिकार कहे जाते हैं, जो बिल ऑफ राइट्स द्वारा जनता ने प्राप्त किए हैं। जबकि अमेरिका और फ्रांस ने इन अधिकारों को नैसर्गिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया है। भारत में भी इन अधिकारों को नैसर्गिक और अप्रतिदेय अधिकार माना गया है। गोलकनाथ और मेनका गांधी के  मामले में भी नैसर्गिक अधिकार माना गया तथा इसके संबंध में कहां गया कि मूल अधिकार ऐसे अधिकार हैं, जो स्वयं संविधान में निहित हैं। किंतु भारतीय संविधान में प्रदान किए गए मूल अधिकार को ब्रिटिश पद्धति के अनुसरण करते हुए संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार के रूप में अंगीकृत किया गया है। इस प्रकार संविधान में मूल अधिकार को किसी भी रूप में स्वीकार करें, परंतु उसका मूल अर्थ एक ही है, अर्थात मूल अधिकार वे आधारभूत अधिकार हैं जो नागरिकों के नैतिक, आध्यात्मिक और बौद्धिक विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है इन अधिकारों के अभाव में व्यक्ति का बहुमुखी विकास असंभव है। अधिकारों को


मूल अधिकार प्रदान किए जाने का उद्देश्य-

संविधान द्वारा मूल अधिकार प्रदान किए गए जाने का उद्देश्य उन अधिकारों को संरक्षण प्रदान किया जाना था, जिनके माध्यम से व्यक्ति अपने अस्तित्व एवं स्वतंत्रता को बचा सके। जब किसी देश में जनता सरकार को अपने ऊपर शासन करने का अधिकार प्रदान करती है, तो उनमें से कुछ अधिकारों को इस प्रकार से संरक्षण प्राप्त होता है, कि किसी भी स्थिति में उन अधिकारों का उल्लंघन ना किया जा सके। यह अधिकार इस श्रेणी के होते हैं, कि विधानमंडल बहुमत प्राप्त होने पर भी उन अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर सकता। मूल अधिकार सरकार की शक्ति को एक निश्चित दिशा में सीमित करता है। जिससे सरकार नागरिकों की स्वतंत्रता के विरुद्ध अपनी शक्ति का प्रयोग ना कर सके।

                            इस प्रकार संविधान में मूल अधिकार का प्रावधान किए जाने का निर्णय उद्देश्य है कि- 

  • विधि शासित सरकार की स्थापना करना

  •  सामाजिक हित एवं व्यक्तिगत हित में तालमेल बनाने का प्रयास करना

  • समाज में समानता स्थापित करना

 विधि शासित सरकार की स्थापना करना-

प्रोफेसर डायसी, द्वारा स्थापित 'विधि के शासन' का अर्थ है, ऐसी शासन व्यवस्था जिसमें बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों का शोषण ना कर सके। अर्थात समाज विधि द्वारा शासित हो न कि किसी वर्ग या व्यक्ति विशेष के द्वारा। भारतीय संविधान में विधि के शासन के सिद्धांत की स्थापना की गई है। अतः भारत में शासन विधि के द्वारा संचालित एवं नियंत्रित है, न कि किसी मनुष्य के द्वारा। ऐसी ही व्यवस्था स्थापित करना संविधान का उद्देश्य है।

सामाजिक हित एवं व्यक्तिगत हित में तालमेल बनाने का प्रयास करना-

आदर्श समाज का यह प्रमुख लक्षण होता। कि वह अपने नागरिकों के सामाजिक हितों का संरक्षण इस प्रकार करें कि उनके व्यक्तिगत हित का उल्लंघन न हो। भारतीय संविधान में मूल अधिकार पूर्ण और असीमित नहीं है। इन अधिकारों पर कुछ अंकुश लगाए गए हैं, जिसका प्रमुख उद्देश्य यह है कि व्यक्ति को ऐसे असीमित और अप्रतिबंधित अधिकार भी प्रदान न किए जाए। जिससे वह समाज में अराजकता और अव्यवस्था उत्पन्न कर सकें। जिस के संबंध में कहा गया है, कि "असीमित स्वतंत्रता एक लाइसेंस हो जाती है जो दूसरे व्यक्तियों के अधिकारों के उपयोग में बाधा पहुंचाती है" जो कि अत्यंत आवश्यक है, कि समाज में शांति व्यवस्था स्थापित करने के लिए व्यक्तियों के असीमित अधिकार पर कुछ उचित अंकुश लगाया जाए। ताकि समाजिक एवं व्यक्तिगत हित में तालमेल बना रहे और समाज की व्यवस्था सुव्यवस्थित ढंग से संचालित और नियंत्रित होती रहे। यदि ऐसा नहीं किया गया तो असीमित अधिकार प्रदान किए जाने का परिणाम भयंकर हो सकता है मगर  दूसरी ओर यह भी देखना आवश्यक हो जाता है, कि व्यक्तियों के अधिकारों पर लगाए गए निर्बंधन अंकुश किस सीमा तक उचित है कभी-कभी व्यक्तियों के अधिकारों पर लगाए गए निर्बंधन उनके अधिकारों के लिए खतरा उत्पन्न कर देते हैं। इसीलिए ऐसी दशा में यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य होता है, कि व्यक्तिगत और सामाजिक क्षेत्र में संतुलन कैसे स्थापित किया जाए? 

                       भारतीय संविधान में इस उद्देश्य को प्राप्त करने का भरसक प्रयास किया गया है। संविधान में जहां  संविधान द्वारा मूल अधिकार प्रदान किए गए हैं वहीं उनमें इन अधिकारों की प्रयोग की कुछ सीमा भी निर्धारित कर दी गई है। इन सीमाओं को ही हम मूल अधिकार पर निर्बंधन के रूप में देखते हैं। जिसके द्वारा ही लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की जा सकती है। ए. के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य के मामले में यह कहा गया कि "ऐसी कोई चीज नहीं हो सकती जिसे हम पूर्ण और असीमित स्वतंत्रता कह सकें जिस पर सभी प्रकार के अवरोध हटा लिए जाएं क्योंकि इसका परिणाम अराजकता और अव्यवस्था होगी।"  

समाज में समानता स्थापित करना-

मूल अधिकारों के द्वारा समाज में पूर्ण समानता स्थापित करने के उद्देश्य को प्रदान किया गया है। यही समानता व्यक्ति की भौतिक और नैतिक पूर्णता के लिए सबसे आवश्यक तत्व माना जाता है। एम. नागराज बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने मूल अधिकार को राज्य के द्वारा दान नहीं अपितु राज्य द्वारा उन्हें संरक्षण प्रदान किए जाने की पुष्टि की है। इसी मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा है कि किसी संविधान के बिना भी व्यक्तियों को आधारभूत मानव अधिकार केवल इस कारण से प्राप्त हैं कि वे मनुष्य वर्ग के सदस्य हैं। अतः इस प्रकार मनुष्य के चहुमुखी विकास के लिए समानता एक अत्यंत आवश्यक तत्व है। जिसकी पूर्ति मूल अधिकारों के माध्यम से की जा सकती है।


मूल अधिकारों की विशेषताएं

भारतीय संविधान द्वारा प्रदान किए गए मूल अधिकारों को 6 श्रेणियों में रखा गया है। जिनकी निम्न विशेषतायें है -

  • इनमें से कुछ अधिकार नागरिकों को तथा कुछ अधिकार व्यक्तियों को प्रदान किए गए हैं। जिसमें से उन सभी व्यक्तियों को शामिल किया गया है। चाहे वह विधिक व्यक्ति ही क्यों ना हो। जैसे - परिषद, कंपनियां आदि।

  •  भारतीय संविधान द्वारा प्राप्त मूल अधिकार असीमित नहीं है। मूल अधिकारों को प्रदान करने के साथ उस पर कुछ निर्बंधन लगाए गए हैं। इसके बावजूद मूल अधिकार वाद योग्य होते हैं। अर्थात मूल अधिकारों के किसी हनन होने की स्थिति में उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय रिट के माध्यम से  पुनः मूल अधिकारों को प्राप्त किया जा सकता है। 

  • भाग 3 में रखे गए मूल अधिकारों में उन अधिकारों को भी रखा गया है जिसमें राज्य के द्वारा किए जा रहे मनमाने कार्य पर अंकुश लगाया जा सकता है इन अधिकारों के माध्यम से राज्य द्वारा किसी व्यक्ति या नागरिक के मूल अधिकारों के हनन की स्थिति में मूल अधिकारों की रक्षा करता है। अनुच्छेद 32 में किए गये रिट के प्रावधान के द्वारा उच्चतम न्यायालय मूल अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी व सुरक्षा प्रदान करता किया गया है। 

  • यह मूल अधिकार स्थायी नही है। कुछ परिस्थितियों में उनमें कमी या कटौती की जा सकती है। लेकिन यह कमी या कटौती किए जाने का अधिकार केवल संविधान संशोधन के द्वारा ही उपयोग में लाया जा सकता है, और इस प्रकार किया गया संशोधन इस प्रकार का होना चाहिए कि मूल ढांचे को कोई प्रभाव ना पहुंचे। 

  • राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति में मूल अधिकार अधिकारों को निलंबित किया जा सकता है


मूल अधिकारों का निर्वचन-

 मूल अधिकारों के द्वारा व्यक्तियों और नागरिकों को गारंटी और संरक्षण प्रदान किया गया है। भाग-3 द्वारा प्रदान किए गए प्मूल अधिकार सुभिन्न और परस्पर अनन्य अधिकार नहीं है, जिनकी अलग-अलग अनुच्छेदों में गारंटी दी गई है। यह सभी अधिकार एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इनमें ऐसे अधिकार भी है, जो स्पष्ट रूप से अनुच्छेद में उल्लेखित नहीं किया गया है। ऐसी स्थिति में इनके विस्तृत निर्वचन की आवश्यकता पड़ती है। कभी-कभी  ऐसी समस्या सामने आ जाती है, जिसमें यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि यह अधिकार मूल अधिकार की श्रेणी में आता है या नहीं। इसलिए उच्चतम न्यायालय को इन अधिकारों के विस्तृत निर्वचन का अधिकार प्रदान किया गया है। उदाहरण के लिए अनुच्छेद 21 में विदेश भ्रमण, निशुल्क विधिक सहायता, शीघ्रतर परीक्षण, मानव गरिमा, एकान्तता का अधिकार, आश्रय का अधिकार को शामिल माना गया है। इस प्रकार प्रत्येक मूल अधिकार स्वयं में बेहद विस्तृत रूप लिए हुए हैं। जिसके निर्वचन के माध्यम से इनको सरलता प्रदान की जाती है।


 भारतीय संविधान संविधान द्वारा प्राप्त मूल अधिकार-

भारतीय संविधान के भाग 3 में (अनुच्छेद 12 - 35)  मूल अधिकारों को रखा गया है। इन मूल अधिकारों को छह श्रेणियों में विभक्त का किया गया है। जो निम्न प्रकार है -


(1) समता का अधिकार (अनुच्छेद 14 - 18) 

  • विधि के समक्ष समता एवं विधियों का समान संरक्षण (अनुच्छेद 14)

  • धर्म, मूल वंश, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर विभेद पर प्रतिषेध (अनुच्छेद 15) 

  • लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता (अनुच्छेद 16)

  • अस्पृश्यता का अंत और उसका निषेध (अनुच्छेद 17)

  • उपाधियों पर रोक (अनुच्छेद 18)


(2) स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 -22)

  • वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सम्मेलन, संघ, संचरण, निवास, वृत्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19)

  • अपराधों के लिए सिद्ध दोष की स्थिति में संरक्षण (अनुच्छेद 20)

  • प्राण एवं दैहिक का स्वतंत्रता का संरक्षण (अनुच्छेद 21)

  • गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण (अनुच्छेद 22)


(3) शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 से 24)

  •  बलात श्रम का प्रतिषेध (अनुच्छेद 23) 

  • कारखानों आदि में बच्चों के नियोजन का प्रतिषेध (अनुच्छेद 24)


(4) धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28)

  • अंतःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25)

  •  धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 26)  

  • किसी धर्म की अभिवृद्धि के लिए करो के संदाय के बारे में स्वतंत्रता (अनुच्छेद 27) 

  • कुछ शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता (अनुच्छेद 28) 


(5) संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29 से 30) 

  • अल्पसंख्यकों की भाषा, लिपि और संस्कृति की सुरक्षा (अनुच्छेद 29)

  •  शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन में अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार (अनुच्छेद 30)


(6) संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)


निष्कर्ष -

भारत का मैग्नाकार्टा कहां जाने वाला संविधान का भाग 3 में मूल अधिकारों की एक विस्तृत सूची दी गई है। मूल अधिकारों का विस्तृत वर्णन इसलिए किया गया है, क्योंकि यह व्यक्ति बहुमुखी विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसके अभाव में किसी भी समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके साथ ही मूल अधिकारों के असीमित व मनमाने प्रयोग को रोकने के लिए कुछ निर्बंधन भी लगाए गए हैं। जिसके संबंध में कहां जाता है की की मूल अधिकार एक हाथ से दिया गया है और दूसरे हाथ से ले लिया गया है। लेकिन ऐसा किया जाना व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित में सामंजस्य स्थापित करने के लिए आवश्यक माना गया। राज्य के भी द्वारा किए जाने वाले मनमाने कार्य पर अंकुश लगाने के लिए राज्य के ऐसे कार्यों के विरुद्ध व्यक्ति को मूल अधिकारों के द्वारा के माध्यम से संरक्षण प्रदान किया गया है। जिससे समाज में समानता एवं स्वतंत्रता स्थापित किया जा किए जाने में सहयोग मिलता है। इस प्रकार मूल अधिकारों के माध्यम से व्यक्ति की नैतिक, बौद्धिक, भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ समाज में संतुलन समानता और स्वतंत्रता स्थापित करने में सफलता प्राप्त हुई है।


स्त्रोत- भारत का संविधान (डॉ. जय नारायण पाण्डेय)

          भारत की राजव्यवस्था (एम. लक्ष्मीकांत)





Comments

Popular posts from this blog

दंडकारण्य का पठार

दंडकारण्य का पठार दंडकारण्य का पठार  यह छत्तीसगढ़ के दक्षिण दिशा में है। यह छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक दृष्टि से सबसे अधिक समृद्ध प्रदेश है। इस क्षेत्र का क्षेत्रफ़ल 39060 वर्ग किलोमीटर है। यह छत्तीसगढ़ के कुल क्षेत्रफल का 28.91 प्रतिशत है। इस पठार  का विस्तार कांकेर ,कोंडागांव ,बस्तर ,बीजापुर ,नारायणपुर ,सुकमा जिला  तथा मोहला-मानपुर तहसील तक है।  इसका निर्माण धारवाड़ चट्टानों से हुआ है।  बीजापुर तथा सुकमा जिले में बस्तर के मैदान का विस्तार है। यहाँ की सबसे ऊँची चोटी नंदी राज (1210 मीटर ) है जो की बैलाडीला में स्थित है।   अपवाह तंत्र  यह गोदावरी अपवाह तंत्र का हिस्सा है। इसकी सबसे प्रमुख नदी इंद्रावती नदी है। इसकी लम्बाई 286 किलोमीटर है। इसका उद्गम मुंगेर पर्वत से होता है। यह भद्राचलम के समीप गोदावरी नदी में मिल जाती है। इसकी प्रमुख सहायक नदी नारंगी ,शंखनी -डंकिनी ,मुनगाबहार ,कांगेर आदि है।  वनस्पति  यहाँ उष्णकटिबंधीय आद्र पर्णपाती वन पाए जाते है। इस क्षेत्र में साल वृक्षों की बहुलता है इसलिए इसे साल वनो का द्वीप कहा जाता है। यहाँ उच्च स्तर के सैगोन वृक्ष पाए जाते है.कुरसेल घाटी(नारायणपुर ) मे

INDIAN PHILOSOPHY IN HINDI

भारतीय दर्शन  (INDIAN PHILOSOPHY)  भा रतीय दर्शन(INDIAN PHILOSOPHY)  दुनिया के अत्यंत प्राचीन दर्शनो में से एक है.इस दर्शन की उत्त्पति के पीछे उस स्तर को प्राप्त करने की आस है  जिस स्तर पर व्यक्ति दुखो से मुक्त होकर अनंत आंनद की प्राप्ति करता है.इस दर्शन का मुख्य उद्देश्य जीवन से दुखो को समाप्त कर मोक्ष की प्राप्ति करना है. इस लेख में निम्न बिन्दुओ पर चर्चा करेंगे - भारतीय दर्शन की उत्पत्ति  भारतीय दर्शन की विशेषताएं  भारतीय दर्शन के प्रकार  भारतीय दर्शन क्या निराशावादी है? निष्कर्ष  भारतीय दर्शन की उत्पत्ति (ORIGIN OF INDIAN PHILOSOPHY) भारतीय दर्शन  की उत्पत्ति वेदो से हुई है.इन वेदो की संख्या 4 है.ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद तथा अथर्ववेद। वेद को ईश्वर की वाणी कहा जाता है। इसलिए वेद को परम सत्य मानकर आस्तिक दर्शन ने प्रमाण के रूप में स्वीकार किया है अर्थात वेदो की बातो को ही इन दर्शनों के द्वारा सत्य माना जाता है.प्रत्येक वेद के तीन अंग है मंत्र ,ब्राम्हण तथा उपनिषद। संहिंता मंत्रो के संकलन को कहा जाता है। ब्राम्हण में कमर्काण्ड की समीक्षा की गयी है.उपनिषद

छत्तीसगढ़ी लोकनृत्य

छत्तीसगढ़ी लोकनृत्य इतिहास से प्राप्त साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि मानव जीवन में नृत्य का महत्व आदिकाल से है, जो मात्र मनोरंजन  का साधन ना होकर अंतरिम उल्लास का प्रतीक है । भारत सम्पूर्ण विश्व में अपनी विशिष्ट संस्कृति हेतु विख्यात है। छत्तीसगढ़ भारत का अभिन्न अंग होने के साथ ही कलाओ का घर है जिसे विभिन्न कला प्रेमियों ने व्यापक रूप देकर इस धरा को विशिष्ट कलाओं से समृद्ध कर दिया है। इन लोक कलाओ में लोकनृत्य जनमानस के अंतरंग में उत्पन्न होने वाले उल्लास का सूचक है । जब मनुष्य को सुख की प्राप्ति होती है तो उसका अंतर्मन  उस उल्लास से तरंगित  हो उठता है ,और फिर यही उल्लास मानव के विभिन्न अंगों द्वारा संचालित होकर  नृत्य का रूप धारण करता है। किसी क्षेत्र विशेष का लोकनृत्य केवल हर्षोउल्लास  का परिचायक न होकर उस क्षेत्र के परम्परा  व संस्कृति का क्रियात्मक चित्रण होता है, जो स्व्यमेव  एक विशिष्ट परिचय समाहित किए होता  है। छत्तीसगढ़ में नृत्य की विभिन्न विधाएं है जो विभिन्न अवसरों पर किए जाते है। यहां हम निम्न नृत्य विधाओं पर चर्चा करेंगे :-  1. पंथी नृत्य 2. चंदैनी न