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बुद्ध दर्शन

बुद्ध दर्शन

गौतम बुद्ध के द्वारा दुखों से मुक्ति के लिए बताया गया मार्ग एवं दर्शन को ही बौद्ध दर्शन के नाम से जाना जाता है।यह भारत के अत्यंत प्राचीन दर्शनों में से एक है इसकी उत्पत्ति छठवीं शताब्दी में धार्मिक अशांति के दौर में हुई थी।
इसका प्रमुख उद्देश्य दुखों को जानकर उसे दूर करना है तथा इसी जीवन में ही निर्वाण प्राप्त करना एवं मृत्यु के बाद परिनिर्वाण प्राप्त कर जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्त होना है।

इस लेख में निम्न बिंदुओं पर चर्चा करेगे-

गौतम बुद्ध का जीवन इतिहास
चार आर्य सत्य
क्षणिकवाद
निष्कर्ष

गौतम बुद्ध का जीवन इतिहास

गौतम बुद्ध का जन्म छठी शताब्दी में लुंबिनी नामक स्थान पर हुआ था. इनके पिता का नाम शुद्धोधन तथा माता का नाम महामाया था। इनके पालन पोषण का कार्य इनकी मौसी गौतमी प्रजापति ने किया था।
इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनकी पत्नी का नाम यशोधरा तथा पुत्र का नाम राहुल था। इन्हें बचपन से ही अत्यंत राजकीय  एवं भोग विलास से परिपूर्ण वातावरण में रखा गया था।
परंतु इनके जीवन में घटने वाली तीन दृश्यों ने इनके मन को सांसारिकता से हटा दिया। यह घटना थी - एक रोगी व्यक्ति,एक वृद्ध तथा एक मृत व्यक्ति को देखना। 
इन दृश्यों को देखने के बाद इन्हें लगने लगा कि यह दुनिया दुखों से भरी हुई है। अतः इन दुखों से मुक्ति पाने का मार्ग तलाशने के उद्देश्य ने इन्होंने 29 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग कर ज्ञान के संधान के लिए निकल पड़े। इस घटना को महाभिनिष्क्रमण कहा जाता है।
ज्ञान की तलाश में वे पहले उज्जैन पहुंचे जहां इन्होंने सांख्य  के ज्ञाता आलार कलाम से ज्ञान प्राप्त किया परंतु प्राप्त ज्ञान से संतुष्ट न होने के कारण वे दुखों को दूर करने का उपाय प्राप्त करने के लिए गया पहुंच गए ।
गया पहुंचने के पश्चात इन्होंने निरंजना नदी के तट पर लगातार छः वर्षो तक इन्होंने तप किया परन्तु ज्ञान कि प्राप्ति नहीं हुई।
अतः इन्होंने एक लड़की के हाथ से भोजन ग्रहण किया।उसी दिन इन्हे ज्ञान कि प्राप्ति हुई तथा वे दुखों का कारण एवम् दुखों से मुक्ति का उपाय से भी अवगत हो गए ।
इस ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् वे सिद्धार्थ से बुद्ध बन गए । बुद्ध का तात्पर्य ज्ञान से प्रकाशित व्यक्ति से होता है।
इन्होंने अपना पहला प्रवचन सारनाथ में पांच व्यक्तियों को दिया । ये वही व्यक्ति थे जिन्होंने गौतम बुद्ध से मतभेद होने के कारण उनका साथ छोड़ दिया था।
इसके पश्चात उन्होंने लगभग 45 वर्षो तक विभिन्न स्थानों में घूमकर अपने दर्शन का प्रचार प्रसार कर लोगो को दुखों से मुक्ति से उपाय बताते रहे ।
इस कार्य में उन्हें कई राजवंशों का साथ मिला जिसकी वजह से बुद्ध दर्शन अत्यंत प्रसिद्ध हो गया । इसी बीच कुशीनगर में इनकी मृत्यु हो गई।
कालांतर में अशोक ने इनके दर्शन का देश के साथ साथ विदेशो में भी खूब प्रचार करवाया जिसके कारण यह दुनिया के प्रमुख धर्मो में से एक बन गया।

बौद्ध प्रमाण

बौद्ध दर्शन किसी भी वस्तु के संबंध में ज्ञान दो प्रकार से प्राप्त करता है. इस ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया को ही प्रमाण कहते है। 
बौद्ध दर्शन में ज्ञान प्राप्ति के दो तरीके बताए गए है 

1 प्रत्यक्ष

2 अनुमान

 प्रत्यक्ष से तात्पर्य ज्ञान प्राप्ति के उस तरीके से हैं जिसके अंतर्गत किसी भी प्रकार की भ्रम की स्थिति ना रहे। जो कल्पना से रहित हो।
वही अनुमान से तात्पर्य उस ज्ञान है जो किसी वस्तु को देखकर लगाया जाता है।जैसे अगर हम धुएं को देखे तो हम अपने अनुभव के आधार पर कह सकते  है कि कहीं पर आग लगा होगा। क्योंकि आग लगने पर ही धुआं उत्पन्न होता है।
इस दर्शन में अनुमान के तीन चिन्ह बताए गए है 
1 पक्ष
2 सपक्ष
3 विपक्ष
इन चिन्हों को इस उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है:-
 पर्वत में धुआं है। पर्वत में आग लगा होगा।रसोई घर में भी आग लगने पर धुआं उत्पन होता है। तालाब में आग नहीं लग सकता।
इस कथन में पर्वत में धुआं है ,पक्ष को प्रदर्शित करता है।  वही रसोई घर में भी आग लगने पर धुँआ उत्पन होता है ,सपक्ष है.तालाब में आग नहीं लग सकता ,विपक्ष का उदाहरण है.

चार आर्य सत्य

चार  आर्य सत्य

बुद्ध के समस्त उपदेशों का मूल उनके चार आर्य सत्य में पाए जाते है। ये आर्य सत्य निम्न है 

जीवन दुःख मय है।(दुःख)
दुखों का कारण भी है ।( दुःख समुदाय )
दुखों का अंत भी संभव है ।( दुःख निरोध )
दुखों के अंत का मार्ग है।( दुख निरोध मार्ग)

इसे आर्य सत्य इसीलिए कहा जाता है क्योकि यह दुखो के निवारण का श्रेष्ठ मार्ग है। आर्य का तात्पर्य ही होता है श्रेष्ठ।

प्रथम आर्य सत्य

इस आर्य सत्य में गौतम बुद्ध ने जीवन को दुःख मय बताया है। अर्थात जीवन दुखों से भरा हुआ है। हमारे जीवन में कई ऐसी घटनाएं घटती हैं जो इस बात को पुष्ट करती हैं कि जीवन दुखमय है- जैसे किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु किसी प्रिय पालतू जानवर की मृत्यु ,किसी प्रिय वस्तु का खो जाना आदि।
जिसे हम खुशी समझते है वह भी वास्तव में दुःख का ही संकेत होता है।जैसे पुत्र होने पर हम खुशी मनाते है और कई बार पुत्र बड़ा होने पर अपने वृद्ध माता पिता को वृद्ध आश्रम में छोड़ देता है. इस तरह जिस पुत्र के होने पर खुशी हुई थी अब वह दुःख का कारण बन गया है।
उसी तरह बहुत सारे लोगो को लगता है कि यदि हमारे पास घर होगा , स्वयं का कार होगा तो हमे खुशी की प्राप्ति होगी अतः वह बैंक से लोन लेकर इन खुशियों को प्राप्त करने का प्रयास  करता है परन्तु  EMI  चुकाते चुकाते यह खुशी दुःख में बदल जाता है।
इन सब उदाहरणों के आधार पर यह कहा जा सकता है की जीवन दुखमय है। स्वयं महात्मा बुद्ध कहते है कि "जीवन में दुःख सागर में पाए जाने वाले पानी की तरह है।"
गौतम बुद्ध के इस आर्य सत्य से यह प्रतीत होता है कि वह निराशावादी है परन्तु वह निराशावादी नहीं है अपितु एक डॉक्टर की तरह वह अपने इस आर्य सत्य के द्वारा दुखों कि उत्पत्ति को समझने का प्रयास कर रहे है।

दूसरा आर्य सत्य

जब प्रथम आर्य सत्य के द्वारा हम इस बात को जान जाते है की जीवन दुःखमय है तो दूसरे आर्य सत्य के द्व्रारा हमें ज्ञात होता है  की दुखो का कारण  तृष्णा  है। हम अपने जीवन काल में कई प्रकार की तृष्णा पाल के रखे रहते है। जैसे अच्छा घर ,महंगी गाड़ियां ,ब्रांडेड वस्तुएँ आदि और जब यह चीज़े या वस्तुएँ हमें प्राप्त नहीं होती है तब हमें दुःख की प्राप्ति होती है.अगर मान लो यह प्राप्त हो भी जाती है तो हमें कोई और दुःख प्राप्त होने लगता है जो इच्छित वस्तुओँ से जुडी होती है.
इस सम्बन्ध में बुद्ध अपने शिष्यों को कहते है की तृष्णा या वासना ही दुःख का कारण  है यह प्रबल तृष्णा ही है जिसके कारण बार-बार जन्म है और उसी के साथ इन्द्रिय सुख आते है जिसकी पूर्ति जहाँ -तहाँ से की जाती है.

बुद्ध दर्शन में तीन प्रकार की तृष्णा के विषय में बताया गया है -

1 भाव तृष्णा - जीवित रहने की इच्छा
2  विभव तृष्णा - वैभव प्राप्त करने की इच्छा
3 काम तृष्णा - इन्द्रिय सुख की इच्छा
दूसरा आर्य सत्य प्रतीत्यसमुत्पाद से भी जुड़ा है। यह सिद्धांत कार्य कारण  सिद्धांत के नाम से भी जाना जाता है.
यह शब्द दो शब्दो से मिलकर बना है.प्रतीत्य तथा समुत्पाद। यहाँ प्रतीत्य का अर्थ एक वस्तु की प्राप्ति होने पर। समुत्पाद का अर्थ है अन्य वस्तु की उत्पत्ति।
इस तरह से इसका अर्थ हुआ की कोई भी घटना चाहे वह भौतिक हो या अभौतिक हो, अकारण नहीं घटती। हर घटना के पीछे कुछ न कुछ कारण जरूर होता है.
गौतम बुद्ध ने दुःख उत्पन्न करने वाले कारणों को 12 भागो में वर्गीकृत किया है। जिसे TWELVE LINKS( बारह कड़ियाँ) के नाम से भी जाना जाता है.यह १२ कारण आपस में जुड़े हुए है.
  1. जरा मरण -इसका सम्बन्ध बुढ़ापे से है.जब हम बूढ़े होते है तो हमारे शरीर में कई तरह के रोग उत्पन्न हो जाते है। इसी तरह समय के साथ साथ हमारे बाल पक जाते है ,दाँत टूटने लगते है ,नजर कमजोर हो जाती है.इस सब वजहों से दुःख होने लगता है.अब प्रश्न उठता है की ऐसा क्यों होता है ?
  2. जाति - जरा मरण से सम्बंधित दुःख जाति की वजह से होता है। जाति से अभिप्राय जन्म लेने से होता है। यदि मनुष्य जन्म न ले तो यह दुःख पैदा ही न हो। परन्तु मनुष्य जन्म क्यों लेता है ? इस बात  का उत्तर तीसरे लिंक से मिलता है। 
  3. भव - मनुष्य जन्म इसलिए लेता है क्योकि वह जन्म लेने की इच्छा रखता है। इसे ही बुद्ध दर्शन में भव के नाम से जाना जाता है.
  4. उपादान - उपादान की वजह से मनुष्य जन्म की इच्छा रखता है.उपादान का अभिप्राय जगत की वस्तुओ के प्रति राग या मोह की भावना से है.
  5. तृष्णा - उपादान का कारण तृष्णा है.सांसारिक वस्तुओ के प्रति हमारी इच्छा ही तृष्णा का कारण है. यह तृष्णा तीन प्रकार की होती है - 1 काम तृष्णा - इन्द्रिय सुख की इच्छा २ भव तृष्णा - जीवित रहने की इच्छा 3 विभव तृष्णा - धन वैभव की इच्छा 
  6. वेदना - तृष्णा का कारण वेदना है। हमारे मन में विभिन्न प्रकार की भावना उत्पन्न होती है।इसे ही वेदना के नाम से जानते है।
  7. स्पर्श - वेदना का कारण स्पर्श है।जब हमारी मन तथा इंद्रियां आपस में मिलती है तो किस स्पर्श की उत्पत्ति होती है।
  8.  षडायतन - इसी के द्वारा ही स्पर्श पैदा होता है। हमारे शरीर में जो 6 ज्ञानेंद्रियां होती हैं आंख नाक कान जीभ त्वचा और मन इन्हीं की वजह से स्पर्श की उत्पत्ति होती है।
  9.  नामरूप- षडायतन का कारण नामरूप है इसका तात्पर्य मन से युक्त शरीर से है।
  10. विज्ञान- नामरुप की उत्पत्ति विज्ञान की वजह से होती है यहां विज्ञान का तात्पर्य चेतना से है।
  11. संस्कार विज्ञान का कारण संस्कार है। संस्कार की उत्पत्ति पूर्व जन्मों के कर्म की वजह से होती है।
  12. अविद्या संस्कार का कारण अविद्या है। अविद्या से अभिप्राय ऐसे कर्मो से है जिनका फल हमें इस जन्म के  साथ साथ आने वाले जन्म में प्राप्त होता है। अविद्या ही समस्त दुखो की जड़ है। अविद्या का अर्थ अनित्य को नित्य समझना आदि है।

   
प्रतीत्यसमुत्पाद का महत्व
यह कर्मवाद की स्थापना करता है । इसके 12 कड़ियों का विस्तार भूत व,तथा भविष्य में है। उल्लेखनीय है कि हमारे पूर्व जन्मों के कर्म की वजह से वर्तमान निर्धारित होता है तथा वर्तमान की वजह से भविष्य का निर्धारण होता है इसे ही कर्मवाद कहा जाता है।इस सिद्धांत की वजह से बौद्ध दर्शन में अनात्मवाद की स्थापना होती है।

तृतीय आर्य सत्य

इस आर्य सत्य का संबंध दुखों की समाप्ति से है। दूसरे आर्यसत्य में गौतम बुद्ध ने बताया की दुखों का कारण अविद्या है और अविद्या का कारण तृष्णा है। अतः यदि तृष्णा को समाप्त कर दिया जाए तो हमारे जीवन से दुख भी स्वयं समाप्त हो जाएगा।

 चतुर्थ आर्य सत्य

चतुर्थ आर्य सत्य को दुख निरोध गामिनी प्रतिपदा अर्थात दुखों को समाप्त करने का मार्ग भी कहा जाता है इसके अंतर्गत 8 मार्ग बताए गए हैं जिसके माध्यम से दुखों को समाप्त किया जा सकता है।
इन 8 मार्गों को अष्टांग मार्ग भी कहा जाता है।
1   सम्यक दृष्टि सम्यक का अर्थ समुचित या सही से होता है। हमारे जीवन में दुखों का कारण हमारा दृष्टिकोण है या हमारा वस्तुओं को देखने का नजरिया है अगर हम इस नजरिया को बदल ले तो हमारे जीवन से वस्तुओं के प्रति उपस्थित माया मोह समाप्त हो सकता है ।सम्यक दृष्टि के अंतर्गत इसी प्रकार के दृष्टिकोण पर जोर दिया जाता है।
2  सम्यक संकल्प बुद्ध के चार आर्य शक्तियों को जीवन में उतारना ही सम्यक संकल्प कहलाता है अर्थात अपने इंद्रियों को विषयों या वासनाओं से अलग रखना ही सम्यक संकल्प है।
3  सम्यक वाक् सत्य एवं प्रिय वचनों का पालन करना है सम्यक वाक् है।
4  सम्यक कार्मांत बुरे कर्मों के स्थान पर अच्छे कर्मों को अपनाना ही सम्यक कर्मांत है अर्थात चोरी नहीं करना अहिंसा का तथा इंद्रिय सुख का परित्याग करना है सम्यक कार्मांत है।
5  सम्यक आजीविका जीवन निर्वाह के लिए अनुचित मार्गो को ना अपनाना ही  सम्यक आजीविका है।
6  सम्यक व्यायाम पुराने बुरे विचार को बाहर निकालना, नए बुरे विचार को मन में आने से रोकना ,अच्छे भाव को मन में भरना इन भावो को मन में बनाए रखने के लिए सतत क्रियाशील रहना ही सम्यक व्यायाम  कहलाता  है।
7  सम्यक स्मृति इस बात का ध्यान रखना की यह शरीर नश्वर है सम्यक् स्मृति कहलाता है।
8  सम्यक समाधि जब कोई व्यक्ति उपरोक्त बातों को अपने जीवन में उतार लेता है तब वह समाधि की अवस्था में पहुंचने लगता है इसे ही गौतम बुद्ध ने सम्यक समाधि कहां है इस अवस्था में पहुंचने पर व्यक्ति निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।

क्षणिकवाद

यह बौद्ध दर्शन का अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत है इसके अनुसार किसी भी वस्तु का अस्तित्व क्षण मात्र के लिए होता है। इसके अनुसार विश्व की समस्त वस्तुएं अनित्य होने के साथ साथ क्षणभंगुर है। अनित्य होने से तात्पर्य किसी वस्तु का नश्वर तथा परिवर्तनशील होना है।
क्षणिकवाद अर्थ क्रिया कारित्व तर्क के आधार पर सिद्ध किया जाता है। अर्थात किसी वस्तु की सत्ता को तभी तक माना जा सकता है जब तक उस में कार्य करने की शक्ति मौजूद हो। यदि एक समय एक वस्तु से एक कार्य का निर्माण होता है और दूसरे समय दूसरे कार्य का निर्माण होता है तो इससे सिद्ध होता है कि पहली वस्तु का अस्तित्व क्षण मात्र के लिए ही रहता है क्योंकि दूसरी वस्तु के निर्माण के साथ ही साथ पहली वस्तु का अस्तित्व समाप्त हो जाता है इसे बीच के उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है बीज क्षणिक है क्योंकि यदि वह नित्य होता तो उसका कार्य पौधे को उत्पन्न करना सदैव चलता परंतु ऐसा नहीं होता है बीच को जब बोरे में रखा जाता है तो वह पौधे को उत्पन्न नहीं कर सकता । मिट्टी मे  बो देने के बाद ही बीज से पौधे का निर्माण होता है पौधा निरंतर परिवर्तनशील है ।पौधे का प्रत्येक क्षण विकास होता जाता है विकास का दूसरे क्षण से भिन्न होता है बीज की तरह संसार की समस्त वस्तुओं का अस्तित्व क्षण मात्र ही रहता है इसी को क्षणिक वाद कहा जाता है।

क्षणिकवाद  की आलोचना 

1  क्षणिकवाद के सिद्धांत कार्य कारण संबंध की व्याख्या करने में असमर्थ हैं यदि कारण क्षण मात्र ही रहता है तो      फिर उससे कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि कार्य की उत्पत्ति  के लिए कारण की सत्ता को एक क्षण से अधिक रहना चाहिए। जब जब कारण ही नहीं होगा तो कार्य कैसे उत्पन्न होगा। अतः या सिद्धांत कार्य कारण संबंध की व्याख्या करने में असमर्थ है।
2  क्षणिकवाद  कर्म सिद्धांत है भी अनुसरण नहीं  करता है अर्थात अगर कोई वस्तु प्रत्येक क्षण परिवर्तित होगी तो उसके कर्म का फल किसे प्राप्त होगा इस बात को क्षणिक वाद स्पष्ट करने में असमर्थ है।
3  क्षणिकवाद सिद्धांत को मान लेने  पर निर्वाण का विचार भी नहीं रह जाता जब व्यक्ति ही क्षणिक है तब दुख से छूटकारा पाने का प्रयास करना ही  निरर्थक है।

निर्ष्कष 

इस तरह बुद्ध दर्शन दुःख को परिभाषित करने के साथ साथ दुखो के कारण को बताकर उससे मुक्ति का भी मार्ग बताते है। यह दर्शन व्यवहारिकता पर आधारित है तथा यह मध्यम मार्ग का अनुसरण कर व्यक्ति को निर्वााण प्राप्ति का मार्ग सुझाता है तथा परिनिर्वाण के मार्ग की ओर लेकर जाता है।



 


     




   

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