भारतीय संविधान की विशेषताएं
भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा तथा विस्तृत संविधान है। इसके बावजूद यह विश्व के सबसे सफल संविधान में से एक है. हालाँकि इसके कुछ आलोचक भारतीय संविधान को उधर का थैला कहते है परन्तु इसमें के तत्व इतने सुंदरता के साथ पिरोये गए है जो इसे दुनिया के सबसे सुन्दर तथा सफल संविधान बनाते है।
इस लेख में हम भारतीय संविधान की इन्ही विशेषताओं पर क्रमवार चर्चा करेंगे।
- लंबा व लिखित संविधान
- नम्यता और अनम्यता का समन्वय
- एकात्मक के साथ संघात्मक
- एकीकृत और स्वतंत्र न्यायपालिका
- सरकार की संसदीय व्यवस्था
- एकीकृत और स्वतंत्र न्यायपालिका
- वयस्क मताधिकार
- एकल नागरिकता
- मौलिक अधिकार
- राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत और मौलिक कर्तव्य
- आपातकालीन प्रावधान
- निष्कर्ष
लंबा व लिखित संविधान -
विश्व में संविधान दो रूपों में दिखाई देता है, लिखित और अलिखित जिसमें से लिखित संविधान का सबसे अच्छा उदाहरण भारतीय संविधान को माना जाता है, तथा अलिखित संविधान का उदाहरण ग्रेट ब्रिटेन का संविधान है। भारत का संविधान सबसे लंबा व लिखित संविधान है। इसकी समग्रता का अनुमान इसमें समाहित 395 अनुच्छेद, 22 भाग और 8 अनुसूचियां से लगाया जा सकता है। जिसमें में महत्वपूर्ण संशोधनों के पश्चात 465 अनुच्छेद को 25 भागों में विभक्त किया गया है, और अनुसूचियों की संख्या 8 से 12 हो गई है। जिससे स्पष्ट होता हैं कि भारतीय संविधान वृहद समग्र और विस्तृत दस्तावेज के रूप में स्थित है।
भारतीय संविधान की विस्तृत होने के पीछे भारत की भौगोलिक स्थिति, भारत का विस्तार और विविधता, एक महत्वपूर्ण कारण है। इसके अतिरिक्त संपूर्ण भारत में एकल संविधान का प्रावधान और भारत शासन अधिनियम 1935 का प्रभाव होने के कारण यह और विस्तृत रूप में संविधान सभा के कानून विशेषज्ञों के द्वारा विस्तृत प्रावधानों को उपबंधित किया गया है। भारतीय संविधान की विशालता का एक कारण यह भी है, कि इसमें न केवल शासन के मौलिक सिद्धांतों को स्थान दिया गया है, बल्कि प्रशासनिक प्रावधानों भी किए गए हैं।
नम्यता और अनम्यता का समन्वय -
लचीला संविधान वह होता है जिनके प्रावधानों में संशोधन की प्रक्रिया आम कानूनों में संशोधन की प्रक्रिया के अनुसार होती है, जैसे - ब्रिटेन का संविधान और कठोर संविधान उसे माना जाता है, जिनके प्रावधानों में संशोधन के लिए एक विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता होती है, जैसे- अमेरिका का संविधान ।भारत का संविधान के अनुच्छेद 368 में संशोधन की प्रक्रिया का प्रावधान किया गया है। जिसके अंतर्गत दो प्रकार से संशोधनको किया जा सकता है। कुछ उपबंध में संशोधन संसद में विशेष बहुमत से किया जाता है जैसे दोनों सदनों में उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों का दो तिहाई बहुमत और प्रत्येक सदन में कुल सदस्यों का बहुमत। और कुछ प्रावधानों में संशोधन हेतु संसद के विशेष बहुमत और कुल राज्यों के आधे से अधिक राज्यों के अनुमोदन की आवश्यकता होती है। उक्त दोनों प्रावधानों से स्पष्ट है, कि भारत का संविधान ना तो लचीला है और ना ही कठोर, बल्कि इसमें दोनों का समन्वय दिखाई देता है। उक्त प्रावधानों के अतिरिक्त संविधान के कुछ प्रावधान अनुच्छेद 368 के अंतर्गत नहीं आते। जिनमें संशोधन संसद के सामान्य बहुमत के माध्यम से किया जाता है।
एकात्मक के साथ संघात्मक
भारत के संविधान में संघीय और गैर-संघीय सरकार दोनों के लक्षण उपस्थित हैं। भारतीय संविधान में दो सरकार, शक्तियों का विभाजन, लिखित संविधान, संविधान की सर्वोच्चता, संविधान की कठोरता, स्वतंत्र न्यायपालिका एवं द्विसदन की उपस्थिति आदि लक्षण संघीय सरकार की स्थापना करते हैं, तथा इसके अतिरिक्त अन्य लक्षण जैसे - एक सशक्त केंद्र, एक संविधान, एकल नागरिकता, संविधान का लचीलापन, एकीकृत न्यायपालिका, केंद्र द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति, अखिल भारतीय सेवाएं और आपातकालीन प्रावधान आदि गैर संघीय लक्षण दर्शाते हैं।
संविधान के अनुच्छेद 1 में यह प्रावधान है, कि भारत राज्यों का संघ है। इसका अर्थ है, कि भारत संघ राज्यों के बीच मध्य किसी समझौते का निष्कर्ष नहीं है और किसी राज्य को किसी भी स्थिति में संघ से अलग नहीं किया जा सकता। इन्हीं लक्षणों व प्रावधानों के कारण भारतीय संविधान में एकात्मकता की ओर झुकाव संघीय व्यवस्था के साथ दिखाई परिलक्षित होता है।
सरकार की संसदीय व्यवस्था -
संसदीय व्यवस्था को उत्तरदायी सरकार और मन्त्रिमण्डली सरकार के नाम से जाना जाता है। भारतीय संविधान में अमेरिका की अध्यक्ष ही प्रणाली के बजाय ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली को अपनाया है। जिसमें विधायिका और कार्यपालिका के मध्य सहयोग व समन्वय दिखाई देता है। इसके विपरीत अध्यक्ष ही प्रणाली में विधायिका और कार्यपालिका में शक्तियों का पृथक्करण का लक्षण दिखाई देता है। संविधान द्वारा अपनाए गए संसदीय व्यवस्था को केंद्र व राज्य दोनों में स्थापित किया गया है। संसदीय प्रणाली की निम्नलिखित विशेषताएं होती हैं, बहुमत वाले दल का सत्ता में होना, विधायिका के प्रति कार्यपालिका की सामूहिक जवाबदेही प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का नेतृत्व, निचले सदन का विघटन (लोकसभा या विधानसभा), वास्तविक व नाम मात्र के कार्यपालिका की उपस्थिति, उक्त विशेषताओं की उपस्थिति भारत के संसदीय व्यवस्था को ब्रिटिश की संसदीय व्यवस्था से भिन्न बनाती है, क्योंकि ब्रिटिश की संसदीय व्यवस्था में संसद संप्रभु होता है।
एकीकृत और स्वतंत्र न्यायपालिका -
भारतीय संविधान में ऐसे न्यायालय न्यायपालिका की स्थापना पर जोर दिया गया है, जो स्वयं में एकीकृत होने के साथ-साथ स्वतंत्र भी हो। संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को स्थापित करने के लिए कई प्रावधान किए गए हैं, जैसे न्यायाधीशों के लिए निर्धारित सेवा शर्तें, न्यायाधीशों के कार्यकाल की सुरक्षा निश्चित कार्यकाल, भारत की संचित निधि से सर्वोच्च न्यायालय के खर्चों का वहन, सेवानिवृत्ति के बाद अदालत में कामकाज पर रोक, अवमानना के लिए दंड देने की शक्ति। इसके अतिरिक्त संविधान में न्यायपालिका को स्वतंत्र रूप से अपना कार्य करने की शक्ति को सबल बनाने के लिए न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखा गया है।
भारतीय संविधान में न्यायपालिका की सर्वोच्चता के सिद्धांत को अपनाया गया है। जिस प्रकार अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना का प्रावधान किया गया है, उसी प्रकार भारतीय संविधान में भी न्यायपालिका को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। परंतु अमेरिका की सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक समीक्षा शक्ति और भारत की न्यायिक समीक्षा शक्ति में भिन्नता है, अमेरिका की संविधान में 'विधि की नियत प्रक्रिया' का प्रावधान किया गया है, जबकि भारतीय संविधान में 'विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया' का प्रावधान है। भारत के संविधान में न्यायालय को यह शक्ति प्रदान की गई है, कि वह संसदीय कानूनों को असंवैधानिक घोषित कर सकता है वहीं इसके विपरीत संसद अपनी संवैधानिक शक्तियों के आधार पर संविधान के भागों में संशोधन कर सकती है। इस प्रकार भारत के संविधान में विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका का अपना पृथक स्थान व शक्ति का प्रावधान है।
वयस्क मताधिकार -
संविधान सभा गठन के समय जिस प्रकार वयस्क मताधिकार पर बल दिया गया इससे स्पष्ट है, कि भारतीय संविधान में वयस्क मताधिकार का क्या महत्व है? भारतीय संविधान में विधानसभा व लोकसभा के सदस्यों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार के द्वारा होता है। संविधान निर्माण के समय निर्वाचन में वयस्क मतदाता की आयु 21 वर्ष निर्धारित की गई थी। जिसे वर्ष1989 में 61 संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा मतदाता की आयु को 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दिया गया।
किसी देश में वयस्क मताधिकार की शक्ति लोकतंत्र को बढ़ावा देने के साथ-साथ वहां के नागरिकों को समानता भी प्रदान करता है।
एकल नागरिकता -
भारतीय संविधान में अमेरिका के नागरिको को देश की नागरिकता के साथ-साथ राज्य की नागरिकता की भांति दोहरे नागरिकता का प्रावधान न कर भारत के नागरिकों को एकल नागरिकता का अधिकार प्रदान किया गया है। भारत का नागरिक चाहे वह किसी भी राज्य में जन्म ले, चाहे वह किसी भी राज्य में निवास कर रहा हो, वह संपूर्ण देश का नागरिक कहलाने का अधिकारी है। यह प्रावधान स्वयं में एकीकृत और संगठित भारत राष्ट्र के निर्माण को आधार प्रदान करता है।
मौलिक अधिकार -
भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान किए गए हैं। जिसका उद्देश्य लोकतंत्र की भावना को प्रोत्साहित करना साथ ही व्यक्ति को जन्म से प्राप्त अधिकारों की रक्षा करना भी है। संविधान में मूल अधिकारों के प्रावधान द्वारा व्यक्ति को प्राप्त मूल अधिकारों का यदि हनन होता है। तो वह सर्वोच्च न्यायालय में मूल अधिकारों के संरक्षण हेतु याचिका दायर कर सकता है। इस प्रकार का प्रावधान कार्यपालिका और विधायिका के द्वारा लाये जाने वाले मनमाने कानूनों पर रोक लगाने का काम करता है।
भारतीय संविधान द्वारा भाग 3 में 6 प्रकार के मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है, यह अधिकार निम्न है -
1. समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14 - 18)
2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 - 22)
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 - 24)
4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
5. सांस्कृतिक व शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद29-30) 6.संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)
राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत और मौलिक कर्तव्य -
भारत में एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करने हेतु नीति निदेशक तत्व सिद्धांतों के माध्यम से राज्यों को यह कर्तव्य सौंपा गया है, कि वह नागरिकों सम्मानपूर्वक जीवन जीने और जीवनयापन हेतु पर्याप्त साधन उपलब्ध कराएं। भारतीय संविधान के भाग 4 में वर्णित नीति निदेशक सिद्धांत का प्रावधान महात्मा गांधी के आदर्श राज्य की स्थापना के स्वप्न को साकार करने पर बल देती है।
भारतीय संविधान में मूल कर्तव्यों के उल्लेख को 1976 में 42 वें संविधान संशोधन द्वारा स्वर्ण सिंह समिति के सिफारिश पर जोड़ा गया। भारतीय संविधान में किया गया मौलिक कर्तव्य का प्रावधान प्रत्येक भारतीय को यह कर्तव्य प्रदान करता है, कि वह संविधान, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करें, राष्ट्र की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करें, भारतीय संस्कृति की समृद्ध धरोहर का अनुरक्षण करें, सभी लोगों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हो। भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्य का प्रावधान करने का मूल उद्देश्य नागरिकों को यह याद दिलाना है, कि मूल अधिकार प्राप्त करने के साथ-साथ उनका देश के प्रति, अन्य व्यक्ति के प्रति कुछ कर्तव्य भी निश्चित है, जिसके निर्वहन द्वारा ही वह एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा सकता है।
आपातकालीन प्रावधान -
देश में उत्पन्न आपातकाल की स्थिति में देश की संप्रभुता, एकता, अखंडता और सुरक्षा तथा संविधान एवं देश के लोकतांत्रिक ढांचे की सुरक्षा करने के उद्देश्य से भारतीय संविधान में आपातकाल के प्रावधानों की व्यवस्था की गई है। भारतीय संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल का वर्णन किया गया है, जिसमें अनुच्छेद 352, द्वारा देश में युद्ध, आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में राष्ट्रीय आपातकाल की व्यवस्था का प्रावधान और अनुच्छेद 356 द्वारा राज्यों के संवैधानिक तंत्र की असफलता की स्थिति में राष्ट्रपति शासन का प्रावधान तथा अनुच्छेद 360 में देश की वित्तीय स्थिरता संकट के समय वित्तीय आपातकाल।
निष्कर्ष -
भारतीय संविधान की विशेषताएं स्वयं में एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती है। भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा भारतीय संविधान का निर्माण के लिए किए गए अथक प्रयासों ने ही संविधान को विशिष्ट विशेषताओं से परिपूर्ण बनाया है। भारत के संविधान के अधिकतर उपबन्ध कई देशों के संविधान व और भारत शासन अधिनियम 1935 से लिया गया है। इस संदर्भ में डॉक्टर अंबेडकर ने कहा था, कि भारत के संविधान का निर्माण विश्व के विभिन्न संविधानो को छानने के बाद किया गया है। भारतीय संविधान में मूल अधिकार, नीति निदेशक सिद्धांत, मूल कर्तव्य जैसे प्रावधान भारतीय संविधान को सर्वोच्चता व विशिष्टता प्रदान किया है, तथा एकल नागरिकता, वयस्क मताधिकार, स्वतंत्र न्यायपालिका, विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का विभाजन जैसे प्रावधान देश के लोकतंत्र को दृढ़ता प्रदान करने के साथ एक सुव्यवस्थित प्रशासन संचालन की व्यवस्था स्थापित करती है।