मानव शरीर में भोजन ,ऑक्सीजन,पोषक तत्व तथा उत्सर्जी पदार्थों को रुधिर के माध्यम से शरीर के विभिन्न भागों में पहुंचाया जाता है। इस क्रिया को परिसंचरण कहते हैं। इस क्रिया को सुचारू रूप से संपन्न करने हेतु अंगों का एक समूह पाया जाता है जिसे परिसंचरण तंत्र कहते है । परिसंचरण तंत्र के द्वारा निम्नलिखित कार्य संपन्न किए जाते हैं -
1. ऑक्सीजन का परिवहन - यह तंत्र ऑक्सीजन को फेफड़ों से शरीर के विभिन्न कोशिकाओं तक पहुंचाता है।
2. नाइट्रोजन का परिवहन - इस तंत्र के द्वारा उत्सर्जित पदार्थ जैसे यूरिक अम्ल ,यूरिया आदि को शरीर के विभिन्न भागों से उत्सर्जी अंगो तक पहुंचाया जाता है।
2. नाइट्रोजन का परिवहन - इस तंत्र के द्वारा उत्सर्जित पदार्थ जैसे यूरिक अम्ल ,यूरिया आदि को शरीर के विभिन्न भागों से उत्सर्जी अंगो तक पहुंचाया जाता है।
3. हारमोंस का परिवहन - यह अंतः स्रावी ग्रंथियों से निकलने वाले हार्मोन को आवश्यक अंगों तक पहुंचाता है।
4. पोषक पदार्थों का परिवहन - शरीर के विभिन्न अंगों तक पोषक तत्व जैसे विटामिन ग्लूकोस आदि को पहुंचाता है।
मानव परिसंचरण तंत्र में मुख्यतः दो तंत्रों का समावेश होता है
1. रुधिर परिसंचरण तंत्र ( blood circulatory system)
2. लसीका परिसंचरण तंत्र (lymph circulation system)
रुधिर परिसंचरण तंत्र (blood circulatory system) - इस भाग के अंतर्गत रुधिर वाहिनी ,ह्रदय की संरचना एवं कार्य विधि का अध्ययन किया जाता है। इस तंत्र को हृदय संवहन तंत्र भी कहा जाता है क्योकि इस संपूर्ण प्रक्रिया हेतु मुख्य भूमिका ह्रदय की होती हैं।
रुधिर परिसंचरण तंत्र में निम्नलिखित तत्वों का समावेश होता हैं -
1. रुधिर (blood)
2. रुधिर कणिकाएं ( blood corpuscles)
3. रुधिर वाहिनियां (blood vessels)
रुधिर (blood) - रुधिर एक तरल संयोजी ऊतक है ,जो शरीर के विभिन्न अंगों तक पोषक तत्वों को पहुंचाता है, तथा मानव शरीर में उपस्थित उपापचय अपशिष्ट उत्पादों को कोशिकाओं के माध्यम से विभिन्न उत्सर्जन अंगों तक ले जाता है। यह जल से थोड़ी भारी तथा क्षारीय प्रकृति की होती है।
एक स्वस्थ मनुष्य में 5 से 6 लीटर रक्त पाया जाता है, जो उस व्यक्ति के भार का 7 % - 8 % होता है।रुधिर के प्रमुख 2 घटक है -
1 रुधिर कणिकाऐं
2 प्लाज्मा
रुधिर कणिकाऐं ( blood corpuscles)
1 रुधिर कणिकाऐं
2 प्लाज्मा
रुधिर कणिकाऐं ( blood corpuscles)
- रुधिर कणिकाऐं रुधिर का 45 % भाग को पूरा करती है। संरचना की दृष्टि से ऐनिमन प्रकार की होती है -
1. लाल रुधिर कणिकाएं ( red blood corpuscles)
2. श्वेत रुधिर कणिकाएं (white blood corpuscles)
3. रुधिर प्लेटलेट्स ( blood platelets)
लाल रुधिर कणिकाएं ( red blood corpuscles)
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यह केंद्रक विहीन ,गोलाकार कणिकाएं होती हैं ,जिसमें हीमोग्लोबिन नामक वर्णक पाया जाता है। इस वर्ण के कारण ही यह लाल रंग का होता है। हिमोग्लोबिन का मुख्य कार्य ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन करना है। इसका जीवन काल लगभग 4 माह अर्थात 120 दिन का होता है।
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यह केंद्रक विहीन ,गोलाकार कणिकाएं होती हैं ,जिसमें हीमोग्लोबिन नामक वर्णक पाया जाता है। इस वर्ण के कारण ही यह लाल रंग का होता है। हिमोग्लोबिन का मुख्य कार्य ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन करना है। इसका जीवन काल लगभग 4 माह अर्थात 120 दिन का होता है।
हीमोग्लोबिन की कमी से मनुष्य एनीमिया रोग से ग्रसित हो जाता है।
श्वेत रुधिर कणिकाएं. (white blood corpuscles)
- यह अनियमित आकार की, केंद्रक युक्त, रंगहीन कणिकाएं होती हैं, जिनकी संख्या लाल रक्त कणिकाओं से कम होती है। यह रक्त कोशिकाओं में सबसे बड़ी होती है। इसका जीवन काल लगभग 10 से 13 दिनों का होता है । इन कणिकाओं का प्रमुख कार्य शरीर की आंतरिक तथा बाह्य संक्रमण से रक्षा करना है। यह कणिकाएं हानिकारक जीवाणुओं , मृत कोशिकाओं का भक्षण कर उसे नष्ट कर देती है. तथा शरीर को संक्रमण व आघातों से रक्षा कर , स्वस्थ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अतः इसे शरीर का सुरक्षा गार्ड भी कहा जाता है।
- यह अनियमित आकार की, केंद्रक युक्त, रंगहीन कणिकाएं होती हैं, जिनकी संख्या लाल रक्त कणिकाओं से कम होती है। यह रक्त कोशिकाओं में सबसे बड़ी होती है। इसका जीवन काल लगभग 10 से 13 दिनों का होता है । इन कणिकाओं का प्रमुख कार्य शरीर की आंतरिक तथा बाह्य संक्रमण से रक्षा करना है। यह कणिकाएं हानिकारक जीवाणुओं , मृत कोशिकाओं का भक्षण कर उसे नष्ट कर देती है. तथा शरीर को संक्रमण व आघातों से रक्षा कर , स्वस्थ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अतः इसे शरीर का सुरक्षा गार्ड भी कहा जाता है।
रुधिर प्लेटलेट्स ( blood platelets)
- यह गोलाकार ,रंगहीन तथा केंद्रक विहीन रुधिर कणिकाएं होती है , जो लाल अस्थि मज्जा में उपस्थित होती हैं । रुधिर प्लेटलेट्स का मुख्य कार्य रुधिर स्कंदन तथा रक्त वाहिनीओं की संक्रमण से रक्षा करना है। इसका जीवनकाल औसतन 8 से 12 दिन का होता है। एक स्वस्थ मनुष्य के रक्त में 150000 से लेकर 4 लाख प्रति घन मिलीमीटर प्लेटलेट्स होते हैं।
- यह गोलाकार ,रंगहीन तथा केंद्रक विहीन रुधिर कणिकाएं होती है , जो लाल अस्थि मज्जा में उपस्थित होती हैं । रुधिर प्लेटलेट्स का मुख्य कार्य रुधिर स्कंदन तथा रक्त वाहिनीओं की संक्रमण से रक्षा करना है। इसका जीवनकाल औसतन 8 से 12 दिन का होता है। एक स्वस्थ मनुष्य के रक्त में 150000 से लेकर 4 लाख प्रति घन मिलीमीटर प्लेटलेट्स होते हैं।
रुधिर के कार्य
1. रुधिर का मुख्य कार्य ऑक्सीजन ,कार्बन डाइऑक्साइड एवं अपशिष्ट पदार्थों का परिवहन करना है।
2. रुधिर में पाए जाने वाले प्रतिरक्षी कणिकाएं विषैले पदार्थों को निष्क्रिय करके इनका विघटन कर शरीर को स्वस्थ बनाए रखने में मदद करती है।
3. रुधिर शारीरिक ताप को नियंत्रित करने में सक्रिय भूमिका निभाता हैं। जब अधिक सक्रीय भागो में तीव्र उपापचय के फल स्वरुप रुधिर का बढ़ने लगता है तो रुधिर में अधिक मात्रा में प्रवाहित होकर शरीर के ताप को नियंत्रित रखता है।
4. मानव शरीर के चोटिल हो जाने पर रुधिर का थक्का जमने से इसका प्रवाह बंद हो जाता है ।
5. रुधिर मृत कोशिकाओं तथा टूटी हुई कोशिकाओं का भक्षण कर उन्हें नष्ट कर देता है जो मनुष्य को स्वस्थ तथा ऊर्जावान बनाए रखता है।
II. प्लाज्मा ( plasma)
यह रुधिर का तरल भाग है जिसमें खनिज लवण ,ग्लूकोस, अमीनो अम्ल, प्रोटीन, हार्मोन, पचित भोज्य पदार्थ तथा उत्सर्जी पदार्थ पाए जाते हैं। यह पारदर्शी व चिपचिपा तरल पदार्थ है ,जो रुधिर में माध्यम का कार्य करता है जिसमे रुधिर कणिकाएं सर्वत्र एक रुप में फैली रहती हैं। इसमें 90% जल तथा 10% अकार्बनिक ,कार्बनिक व प्रतिरक्षी पदार्थ पाए जाते हैं। इसकी संरचना शरीर के अलग-अलग भागों में अलग - अलग होती है।
रुधिर प्लाज्मा में फाइब्रिनोजेन नामक प्रोटीन पदार्थ पाया जाता है जो का थक्का बनने में सहायक होता है। यदि इस प्लाज्मा से फाइब्रिनोजेन प्रोटीन को हटा दिया जाए तो जो पदार्थ हमें प्राप्त होता है उसे सीरम कहते हैं।
मानव शरीर में रक्त का परिसंचरण विभिन्न नलिकाओ के माध्यम से होता है। इन नलिकाओ को रुधिर वाहनिया कहा जाता है। यह वाहिनियाए आपस में जुड़कर एक बंद तंत्र का निर्माण करती हैं , जिसके द्वारा पूरे शरीर में रक्त का परिसंचरण किया जाता है। इनके कार्य के आधार पर इनको मुख्यतः तीन भागों में बांटा गया है-
1. धमनियां (Arterioles)
2. शिराएं ( veins)
3. केशिकाए ( capillaries)
धमनियां (Arterioles) - यहां मोटी भित्ति वाली पेशीय तथा लचीली रुधिर वहिनियाए हैं जो शरीर के विभिन्न भागों में शुद्ध रुधिर का परिवहन करती हैं। मोटी भित्ति वाली दीवार होने के कारण ही धमनियां सिकुड़ व फैल सकती हैं ,तथा उच्च ताप को सहन कर सकती हैं। जब ह्रदय रुधिर को धमनियों में पंप करता है उस समय दाब काफी उच्च होता है। अतः धमनी में रुधिर परिसंचरण तीव्र गति से होता है।
मानव ह्रदय से दो प्रमुख धमनिया निकलती हैं -
1. फ्फुफ्फुसीय धमनी (pulmonary Arteriole)
- यह धमनि ह्रदय के दाएं निलय से जुड़ी होती हैं जो आगे चलकर दो शाखाओं में विभाजित हो जाती है। प्रत्येक शाखा एक - एक फेफड़े से जुड़ी होती है ।
- यह धमनि ह्रदय के दाएं निलय से जुड़ी होती हैं जो आगे चलकर दो शाखाओं में विभाजित हो जाती है। प्रत्येक शाखा एक - एक फेफड़े से जुड़ी होती है ।
अपवाद - यद्यपि धमनियों में शुद्ध रक्त प्रवाहित होता है परंतु फुफ्फुस धमनी इसका अपवाद है जो दाएं नीले से अशुद्ध रुधिर को फेफड़ों तक ले जाती है।
2. महाधमनी (Aorta) -
यह धमनि हृदय के बाएं निलय से निकलकर वक्ष के अंत तक जाती है। आगे जाकर यह विभिन्न शाखाओं में विभाजित हो जाती है ,तथा बाएं निलय से प्राप्त शुद्ध रुधिर को शरीर के अन्य भागो में प्रवाहित करती हैं। यह मानव शरीर की सबसे बड़ी धमनी है।
शिराएं ( veins) - यह पतली भित्ति वाली और कम पेशीय वाली नलिकाएं होती है जो शरीर के विभिन्न अंगों से अशुद्ध रक्त को ह्रदय तक ले जाती है। इन शिराओं में कम दाब से रुधिर प्रवाहित होती है, इसलिए इनमें वाल्व पाए जाते हैं जो अशुद्ध रुधिर को वापस अंगों में प्रवाहित होने से रोकते हैं।
अपवाद - यद्यपि शिराओं में अशुद्ध रक्त का प्रवाह होता है,परंतु फुफुसीय शिरा इसका अपवाद है जो फेफड़ों से बाएं आलिंद तक शुद्ध रक्त का प्रवाह करती है।
रुधिर केशिकाएं (blood capillaries) - यह महीन रुधिर वाहिनियाए होती हैं ,जिसकी भित्ति पतली होती हैं। यह भित्तिया जल में घुलीत पोषक पदार्थ ,छोटे अणुओ , उत्सर्जी पदार्थ ,ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड के लिए पारगम्य होती हैं। इन पदार्थों का विनिमय इनसे घिरे हुए कोशिकाओं के माध्यम से होता है। इस विधि के द्वारा फेफड़ों की कूपिताएं भी वायु का विनिमय करती हैं। इसमें उपस्थित कोशिकाएआपस में जुड़कर शिरिकाएऔर अंत में शिराएं बनाते हैं।
हृदय (heart) - मानव हृदय एक पेेेेशीय अंग है , जो एक पंप के समान कार्य करती हैं। इसका कार्य रुधिर वाहिनीयों के माध्यम से रक्त को शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुंचाना है। एक सामान्य वयस्क व्यक्ति के हृदय का भार लगभग 300 ग्राम होता है ,जो 12 सेंटीमीटर लंबा व 9 सेंटीमीटर चौड़ा होता है। यह वक्ष गुहा में पसलियों के नीचे तथा फेफड़ों के बीच स्थित होता है ,जो दोहरी झिल्ली से घिरा रहता है, जिसे पेरिकार्डियम कहते हैं। इन दोनों के मध्य एक द्रव भरा रहता है ,जिसे पेरिकार्डियल द्रव कहा जाता है ,जो मनुष्यके हृदय की बाहरी आधातो से सुरक्षा करता है।
हृदय में चार कक्ष होते है। अग्र भाग के दो कक्षाओ को दाया एवं बाया आलिंद कहते हैं, तथा पश्च भाग के दो कक्षों को दाएं एवं बाया निलय कहते है । दोनों आलिंद हृदय की चौड़ी अग्रभाग में स्थित होते है जो एक विभाजीका के द्वारा एक दूसरे से अलग रहते हैं, जिन्हें अंतर आलिंद भित्ति कहां जाता है। तथा दोनों नीले हृदय की पीछे ओर सकरे भाग में स्थित होते हैं और एक विभाजिता द्वारा अलग होते हैं जिससे अंतर निलय भित्ति कहा जाता है। बाया आलिंद , बाएं निलय से एक छिद्र के द्वारा जुड़ा रहता है , जिसे बया आलिंद - निलय छिद्र कहते हैं। इस छिद्र में एक वाल्व होता है जिसे मिट्रल कपाट कहते हैं ,जो रक्त के एक दिशीय प्रवाह को सुनिश्चित करता है।
इसी प्रकार दाया आलिंद दाएं निलय से एक छिद्र के द्वारा जुड़ा रहता है जिसे दाया आलिंद -निलय छिद्र कहते हैं। इस छिद्र में एक त्रिकापातीय वाल्व होता है जो रक्त को आलिंद से दाएं निलय में तो जाने देते हैं परंतु विपरीत दिशा में जाने से रोकता है। बाये निलय के अगले भाग में महाधमनी निकलती है। महाधमनी के उदगम स्थान पर तीन अर्धचंद्राकार वॉल्व पाए जाते हैं। यह वाल्व रुधिर को निलय से महाधमनी में तो आने देते हैं परंतु वापस नहीं जाने देते।
इस प्रकार संपूर्ण शरीर में रक्त का प्रवाह हृदय की स्पंदन क्रिया द्वारा संभव होता है जिसने दो अवस्थाएं सम्मिलित हैं -
1. संकुचन (systole)
2. अनुशीलन ( diastole)
हृदय के आलिंद एवं निलय में क्रमशः संकुचन तथा अनुशीलन होता रहता है। यह क्रिया चारों भागों में एक साथ नहीं होती बल्कि दोनों आलिंद एक साथ संकुचित एव शिथिल होते हैं और दोनों निलय एक साथ संकुचित व शिथिल होते हैं। इन संकुचन और अनुशीलन के द्वारा ही हृदय धड़कन का निर्माण होता है। एक सामान्य स्वस्थ मनुष्य का हृदय 1 मिनट में औसतन 72 बार धड़कता है।
ऑक्सिजन युक्त रुधिर फुफुस शिरा से हृदय के बाएं आलिंद में आता है। इस समय बयां आलिंद शिथिल अवस्था में रहता है। बाएं आलिंद के संकुचन द्वारा रुधिर बांया निलय में पहुंचता है। इसमें संकुचन में रुधिर महाधमनी से होता हुआ रुधिर धमनी तंत्र की धमनियों द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में शुद्ध रुधिर पहुंचाता है। दाया आलिंद जब शिथिल अवस्था में रहता है तब अग्र एव पश्च शिराओ द्वारा शरीर का अशुद्ध रुधिर इसमें पहुंचता है। दाएं आलिंद के संकुचन पर दाएं रुधिर पहुंचता है। दाएं निलय के संकुचन पर अशुद्ध रुधिर फुफुस धमनी द्वारा फेफड़ों में शुद्धिकरण के लिए पहुंचाया जाता है। दोनों निलय का संकुचन एक साथ होता है। संकुचन समाप्त होते ही आलिंद में फिर संकुचन आरंभ होता है। इस प्रकार आलिंद तथा निलय का एकांतर संकुचन व शिथिलन होते रहता है। इसमें उपस्थित कपाट रुधिर को विपरीत दिशा में प्रभाव होने से रोकता है।
रुधिर वाहिनियों एवं उतको के मध्य रिक्त स्थान में एक रंगहीन तरल पदार्थ पाया जाता है जिसे लसीका कहते हैं। इनमें लाल रक्त कणिकाएं अनुपस्थित होती हैं ,जबकि श्वेत रक्त कणिकाएं अधिक मात्रा में पाई जाती हैं। इनमें ऑक्सीजन तथा पोषक पदार्थों की मात्रा रक्त की अपेक्षा कम होती है, तथा कार्बन डाई ऑक्साइड ,उत्सर्जित पदार्थ की मात्रा अधिक होती है। इनकी कोशिकाओं की भित्ति में उपस्थित छिद्रो द्वारा प्लाज्मा प्रोटीन एवं रुधिर कोशिकाएं अंतर कोशकीय अवकाश में आ जाते हैं तथा लसीका का निर्माण करते हैं। लसीका अंतर कोशकीय अवकाश से लसीका कोशिका में पहुंचता है जो आपस में मिलकर एक बड़ी लसीका वाहिका बनाती हैं। बड़ी शिरा में खुलती है।
लसीका के कार्य
1. लसीका वाहिनिया जल का अस्थाई रूप से संचय करती हैं।
2. शरीर में वसा का परिवहन लसीका के द्वारा ही होता है।
3. लसीका में मौजूद लिंफोसाइट्स रोगाणुओं को नष्ट कर संक्रमण से मनुष्य की सुरक्षा करती है।
4. यह रुधिर को छानने में सहायक होती है।
5. चोट लगने पर यह घाव भरने में भी सहायक होती है।
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