छत्तीसगढ़ी लोकनृत्य
इन लोक कलाओ में लोकनृत्य जनमानस के अंतरंग में उत्पन्न होने वाले उल्लास का सूचक है । जब मनुष्य को सुख की प्राप्ति होती है तो उसका अंतर्मन उस उल्लास से तरंगित हो उठता है ,और फिर यही उल्लास मानव के विभिन्न अंगों द्वारा संचालित होकर नृत्य का रूप धारण करता है।
किसी क्षेत्र विशेष का लोकनृत्य केवल हर्षोउल्लास का परिचायक न होकर उस क्षेत्र के परम्परा व संस्कृति का क्रियात्मक चित्रण होता है, जो स्व्यमेव एक विशिष्ट परिचय समाहित किए होता है।
छत्तीसगढ़ में नृत्य की विभिन्न विधाएं है जो विभिन्न अवसरों पर किए जाते है।
यहां हम निम्न नृत्य विधाओं पर चर्चा करेंगे :-
1. पंथी नृत्य
2. चंदैनी नृत्य
3. राउत नाचा
4. करमा
5. ककसार
6.गौर
7. गेंडी
8. हुलकी पाटा
9. दोरला
10. परब नृत्य
11. मांदरी
12.सरहुल
13.सैला
14.दमनच
15 . सुआ नृत्य
सुआ नृत्य छत्तीसगढ़ का अत्यंत लोकप्रिय नृत्य है । यह नृत्य धान पकने के बाद दीवाली से कुछ दिन पूर्व कार्तिक माह से प्रारंभ होकर लक्ष्मी पूजा के दूसरे दिन शिव - गौरी के विवाह के साथ समापन होता है।यह महिलाओ द्वारा समूह में किया जाने वाला नृत्य है।
महिलाएं समूह के बीच में बांस की टोकरी में धान भर कर उसके ऊपर मिट्टी से बने 2 सुआ रखती है तथा गोलाकार आकृति बनाकर टोकरी के गोल - गोल घूमकर सुआ गीत गाते हुए तालियों की थाप पर नृत्य करती है। टोकरी में रखे सुआ को शिव - पार्वती का प्रतीक माना जाता है । अतः इस नृत्य को गौरी नृत्य भी कहा जाता है।
पंथी नृत्य सतनाम पंथ का एक आध्यात्मिक और धार्मिक नृत्य है। पंथी गीत , जिसमें गुरु घासीदास के चरित्र का वर्णन किया जाता है , को गाते हुए यह नृत्य किया जाता है। इस नृत्य में प्रयोग होने वाले प्रमुख वाद्य यंत्र मांदर व झांझ है। यह एक पुरुष प्रधान नृत्य है जो जैतखंभ के पास किया जाता है। इस नृत्य में नर्तक नृत्य करते हुए पिरामिड नुमा आकृति बनाते है तथा समय के साथ अत्यंत तीव्र गति से भाव - भगीमा में परिवर्तन करते हुए इस नृत्य को करते है । अतः इस नृत्य को द्रुतगामी नृत्य भी कहा जाता है।
3. चंदैनी नृत्य
लोरिक - चंदा की प्रेम कथा के रूप में विख्यात चंदैनी छत्तीसगढ़ में 2 शैलियों में पाई जाती है -
लोरिक - चंदा की प्रेम कथा के रूप में विख्यात चंदैनी छत्तीसगढ़ में 2 शैलियों में पाई जाती है -
1.लोककथा के रूप में
2. गीत - नृत्य के रूप में
इस नृत्य में पुरुष पात्र विशेष वेशभूषा धारण किए हुए होते हैं तथा नृत्य के साथ - साथ चंदैनी अर्थात लोरिक - चंदा की प्रेम गाथा का भी वर्णन करते हैं। इस नृत्य को और भी मनोरम बनाने हेतु बीच-बीच में विदूषक मशाल को लेकर करतब दिखाता है। इसमें नृत्य को करने का कोई विशेष समय नहीं होता तथा इसमें प्रयोग किए जाने वाले वाद्य यंत्र टिमकी और ढोलक है ।
राउत नाचा छत्तीसगढ़ में यादव/राउत समाज द्वारा किया जाने वाला प्रमुख नृत्य हैं। यह नृत्य शौर्य का कलात्मक प्रदर्शन है। पौराणिक कथा के अनुसार श्री कृष्ण के द्वारा अपने अन्यायी मामा कंस का वध करने के पश्चात विजय के प्रतीक स्वरूप इस नृत्य को प्रारंभ किया गया था। इस नृत्य को मुख्यतः दिवाली के अवसर पर किया जाता है। यह पुरुष प्रधान नृत्य हैं , जिसमें पुरुष विशेष वेशभूषा धारण किए होते हैं। अपने हाथों पर विशेष रूप से सजी हुई लकड़ी भी पकड़ते हैं, तथा सिंग बाजा व डोलक बजाते हुए नृत्य करते है। इस नृत्य को करते हुए बीच-बीच में श्रृंगार और हास्य रस की प्रधानता लिए हुए दोहों का भी प्रयोग किया जाता है। बिलासपुर के देवकीनंदन सभागृह में सन 1978 से प्रतिवर्ष देवउठनी के दिन इस नाचे का आयोजन किया जाता है।
यह नृत्य छत्तीसगढ़ में निवासरत गोड, बैगा, बिंझवार तथा उराव जनजाति द्वारा किया जाने वाला नृत्य है ,जो अपने इष्ट देव कर्मा देवता को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है। यह नृत्य मुख्यतः निम्न अवसरों पर किया जाता है -
1. नवाखाई के अवसर पर संतान की मंगल कामना हेतु
2. दीपावली के अवसर पर
3. भाई-बहन के प्रेम को दर्शाने हेतु दसई करमा नृत्य किया जाता है।
इस नृत्य में पुरुष तथा महिला दोनों का बराबर का वर्चस्व होता है।
कर्म को जीवन में प्रधानता देने का विचार ही इस नृत्य का महत्वपूर्ण संदेश होता है। यह नृत्य वास्तव में जीवन चक्र की कलात्मक अभिव्यक्ति है।
यह नृत्य मुख्य रूप से बस्तर में निवास करने वाले मुरिया जनजाति द्वारा किया जाता है ,जो एक धार्मिक नृत्य है। मुड़िया जनजाति के लोग अपने कुलगुरु लिंगा देव को प्रसन्न करने के लिए रात भर नृत्य करते हैं। यह नृत्य को करने की कोई विशेष तिथि नहीं है। मुख्य रूप से यह नृत्य वर्षा ऋतु के आरंभ के समय तथा ग्रीष्म ऋतु के समापन के समय किया जाता है। इस नृत्य में महिला तथा पुरुष दोनों भाग लेते हैं।
इस नृत्य को बस्तर में निवासरत मारिया जनजाति के द्वारा जात्रा पर्व के अवसर पर किया जाता है। इस नृत्य में युवक सिर पर गौर के सिंह को कौड़ियों से सजाकर उसका मुकुट बनाकर पहनते हैं । अतः इस नृत्य को गौर नित्य भी कहा जाता है।
इस नृत्य में केवल पुरुष भाग लेते हैं। महिलाओं द्वारा केवल वाद्य यंत्र को बजाया जाता है जिसे तिर्तुडडी कहते हैं।
इस नृत्य को मानव शास्त्री वेरियर एल्विन ने संसार का सबसे सुंदर नृत्य कहां है।
यह नृत्य संपूर्ण छत्तीसगढ़ में प्रचलित है ,परंतु बस्तर में इसे मुड़िया जनजाति द्वारा सावन माह में हरेली के अवसर पर किया जाता है। यह पुरुष प्रधान नित्य है ,जिसमें पुरुष तीव्र गति से व कुशलता के साथ गेड़ी पर शारीरिक संतुलन को बरकरार रखते हुए नृत्य करते हैं। अतः यह नृत्य पूर्णता शारीरिक कौशल और संतुलन का प्रदर्शन है।
9. हुलकी पाटा
यह नृत्य मुरिया जनजाति द्वारा किया जाने वाला मनोरंजन प्रधान नृत्य हैं , जिसे करने का कोई विशेष समय नहीं होता। इस नृत्य में पुरुष व महिला दोनों प्रधान होते हैं। यह नृत्य सवाल-जवाब शैली पर आधारित होती है।
10. दोरला नृत्य
दोरला बस्तर मेंं निवासरत जनजाति का नाम है और उनके द्वारा किए जानेेेे वाले नृत्य को दोरला नृत्य कहा जाता है। इस नृत्य को पर्व तथा विवाह के अवसर पर महिला व पुरुष द्वारा ढोलक बजाते हुए किया जाताा है।
11. परब नृत्य
यह नृत्य बस्तर में निवास करने वाले धुरवा जनजाति के द्वारा किया जाता है । अतः इसे धुरवा नृत्य भी कहते है। यह नृत्य महिला व पुरुष साथ मिलकर बांसुरी, ऑलखाजा तथा ढोल बजाते हुए करते हैं , जिसमें पिरामिड जैसा दृश्य दिखाई पड़ता है। इस नृत्य को सैनिक नृत्य कहा जाता है, क्योंकि नर्तक नृत्य के दौरान वीरता के प्रतीक चिन्ह कुल्हाड़ी व तलवार लिए होते हैं। इस नृत्य का आयोजन मढ़ई के अवसर पर किया जाता है।
यह नृत्य मुरिया जनजाति द्वारा किया जाने वाला मनोरंजन प्रधान नृत्य हैं , जो मुख्यतः घोटुल में किया जाता है । परंतु वर्तमान में यह नृत्य विभिन्न अवसरों पर जैसे विवाह व मड़ई के अवसर पर भी किया जाता है ।इस नृत्य के दौरान स्त्रियां गीत गाती हैं जिसे मरम पाटा गीत कहां जाता है। जब यह नृत्य केवल पुरुषों द्वारा किया जाता है तो उसे मांदरी नृत्य कहते हैं और जब महिलाएं इसे करती हैं, तो उसे चिटकुल नृत्य कहां जाता हैं, क्योंकि महिलाएं इस नृृत्य के दौरान चिटकुल नामक वाद्य यंत्र बजाती हैं।
13.सरहुल नृत्य
यह नृत्य उराव जनजाति द्वारा चैत्र मास की पूर्णिमा के दिन साल वृक्ष में फूल आने पर मनाए जाने वाले सरहुल पर्व के उपलक्ष्य में किया जाता है । यह एक सामूहिक नृत्य है , जिसमें युवक - युक्तियां उत्साह और उमंग से हिस्सा लेती हैं । इस नृत्य में प्रयोग किये जाने वाले प्रमुख वाद्य यंत्र मांदर और झांझ है।
14.सैला नृत्य
यह पुरुषों द्वारा किया जाने वाला सर्वाधिक कलात्मक व सामूहिक नृत्य है। इस नृत्य को डंडा नृत्य के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इसमें नर्तक डंडा लेकर समूह में नृत्य करते हैं।इस नृत्य में मांदर का प्रयोग किया जाता है। इसका आयोजन धान की कटाई के पश्चात किया जाता है। मुख्यतः यह बैगा जनजाति द्वारा किया जाने वाला नृत्य है।
प्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मुकुटधर पांडेय ने इस नृत्य को छत्तीसगढ़ का रास कहां है।
15.दमनच नृत्य
कोरवा जनजाति के द्वारा यह नृत्य विवाह के अवसर पर किया जाता है। इस नृत्य में स्त्री पुरुष दोनों भाग लेते हैं ।
नृत्य के साथ गायन भी होता है। नर्तक द्वारा नृत्य करते हुए विभिन्न मुद्राएं भी बनाई जाती हैं, जो इस नृत्य को आकर्षक बनाती है।
निष्कर्ष
इस तरह छत्तीसगढ़ की माटी कई नृत्य कलाओं से समृद्ध है। इसके कण -कण में कई तरह की नृत्य रची बसी है। परन्तु ,आज इनमे से कई नृत्य कलाएं समाप्त हो रही है। क्योकि आम लोगो का रुझान इस ओर कम होता जा रहा है। इसके अलावा शहरीकरण के चकाचौंध में भी यह नृत्य कलाएं समाप्त होती जा रही है।
अतः यह सरकार के साथ हम सब की जिम्मेदारी है की इनके संरक्षण में सहयोग देवे।
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