Skip to main content

बंगाल की व्यवस्था : दोहरी प्रणाली

  • क्लाइव ने बंगाल की उलझन को कुख्यात दोहरी प्रणाली द्वारा सुलझाने का प्रयत्न किया | इसमें वास्तविक शक्ति तो कंपनी के पास थी परन्तु प्रशासन का भार नवाब के कंधों पर था |  
  • मुगल साम्राज्य के स्वर्ण काल से ही प्रांतों में दो मुख्य अधिकारी होते थे, सूबेदार तथा दीवान | सूबेदार का कार्य निजामत अर्थात सैनिक संरक्षण, पुलिस तथा फौजदारी कानून लागू करना, तथा दीवान का कार्य कर व्यवस्था तथा दीवानी कानून लागू करना था| ये दोनों अधिकारी एक दूसरे पर नियंत्रण का काम भी करते थे तथा सीधे केंद्रीय सरकार के प्रति उत्तरदायी थे | औरंगज़ेब की मृत्यु के पश्चात मुगल सत्ता क्षीण हो गयी तथा बंगाल नवाब मुर्शिद कुली खां दीवानी तथा निजामत दोनों का कार्य करता था |
  • 12 अगस्त, 1756 के फरमान के अनुसार शाह आलम ने 26 लाख रु.वार्षिक के बदले दीवानी का भार कंपनी सौंप  दिया |कम्पनी को 53 लाख रु.निजामत के कार्य के लिए भी देने थे | फरवरी 1756 में अपने पिता मीर जापर की मृत्यु पर नज़मुद्दौला  को नवाब बनाने की अनुमति दे दी गई परन्तु शर्त यह थी कि निजामत का लगभग समस्त कार्य भार, अर्थात सैनिक संरक्षण तथा विदेशी मामले पूर्णतया  कम्पनी के हाथों में तथा दीवानी मामले डिप्टी सूबेदार, जिसको कम्पनी मनोनीत करेगी तथा जिसे कम्पनी की अनुमति के बिना हटाया नहीं जा सकेगा, सौंप दे | इस प्रकार कम्पनी को मुगल सम्राट से दीवानी तथा बंगाल के सूबेदार से निजामत का कार्यभार मिल गया |
  • इस समय कम्पनी सीधे कर संग्रह करने का भार न तो लेना चाहती थी और न ही उसके पास ऐसी क्षमता थी |कम्पनी ने दीवानी के कार्य के लिए दो उपदीवान, बंगाल के लिए मुहम्मद रजा खां तथा बिहार के लिए राजा शिताब राय नियुक्त कर दिए | मुहम्म्द रजा खां उपनाजिम  के भी रूप में कार्य करते थे | इस प्रकार समस्त दीवानी तथा निजामत का कार्य भारतीयों द्वारा ही चलता था यद्यपि उत्तरदायित्व कम्पनी का था | इस व्यवस्था को दोहरी प्रणाली की संज्ञा दी गई हैं अर्थात दो राजे, कम्पनी तथा नवाब | व्यवाहरिक रूप में यह व्यवस्था खोखली सिद्ध हुई क्योंकि समस्त शक्ति तो कम्पनी के पास थी तथा भारतीय अधिकारी केवल बाहरी मुखौटा मात्र ही थे |
  • क्लाइव की दोहरी प्रणाली का ओचित्य - क्लाइव समझता था कि समस्त शक्ति कम्पनी के पास हैं तथा नवाब के पास सत्ता की केवल छाया ही है | उसने प्रवर समिति को लिखा था : ‘यह नाम यह  छाया आवश्यक है तथा हमें इसको को स्वीकार करना चाहिए | “ इसके पक्ष में उसने निम्नलिखित कारण दिए - 

  1. यदि कम्पनी स्पष्ट रूप से राजनैतिक सत्ता हाथ में ले लेती है तो उसका वास्तविक रूप लोगों के सन्मुख आ जाएगा और सम्भवत: सारे भारतीय इसके विरोध में एकत्रित हो जाएं | 
  2. सम्भवत: फ़्रांसीसी, डच तथा डेन, विदेशी कम्पनियां सुगमता से कंपनी की सूबेदारी को स्वीकार नहीं करेंगी तथा कम्पनी को वे कर इत्यादि नहीं देंगी जो नवाब के फरमानों के अनुसार  उन्हें देने होते थे | 
  3. स्पष्ट राजनैतिक सत्ता हाथ में लेने से, इंग्लैण्ड  तथा विदेशी शक्तियों के बीच कटुता आ जाती और सम्भवत: ये सभी शक्तियां इंग्लैण्ड  के विरुद्ध एक मोर्चा खड़ा कर लें जैसा कि 1778-80 के बीच अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम के समय हुआ | 
  4. इंग्लैड के पास ऐसे प्रशिक्षित अधिकारी भी नहीं थे जो शासन का भार संभाल लेते | क्लाइव ने इंग्लैण्ड  में अधिकारीयों को यह लिखा था यदि हमारे पास तीन गुणा भी प्रशासनिक सेवा करने वाले लोग हों तो भी वे इस कार्य के लिए पर्याप्त नहीं होंगे | जो थोड़े बहुत लोग कम्पनी के पास थे भी , वे भारतीय रीति - रिवाजों तथा भाषा से अनिभज्ञ थे | 

Popular posts from this blog

छत्तीसगढ़ी लोकनृत्य

छत्तीसगढ़ी लोकनृत्य इतिहास से प्राप्त साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि मानव जीवन में नृत्य का महत्व आदिकाल से है, जो मात्र मनोरंजन  का साधन ना होकर अंतरिम उल्लास का प्रतीक है । भारत सम्पूर्ण विश्व में अपनी विशिष्ट संस्कृति हेतु विख्यात है। छत्तीसगढ़ भारत का अभिन्न अंग होने के साथ ही कलाओ का घर है जिसे विभिन्न कला प्रेमियों ने व्यापक रूप देकर इस धरा को विशिष्ट कलाओं से समृद्ध कर दिया है। इन लोक कलाओ में लोकनृत्य जनमानस के अंतरंग में उत्पन्न होने वाले उल्लास का सूचक है । जब मनुष्य को सुख की प्राप्ति होती है तो उसका अंतर्मन  उस उल्लास से तरंगित  हो उठता है ,और फिर यही उल्लास मानव के विभिन्न अंगों द्वारा संचालित होकर  नृत्य का रूप धारण करता है। किसी क्षेत्र विशेष का लोकनृत्य केवल हर्षोउल्लास  का परिचायक न होकर उस क्षेत्र के परम्परा  व संस्कृति का क्रियात्मक चित्रण होता है, जो स्व्यमेव  एक विशिष्ट परिचय समाहित किए होता  है। छत्तीसगढ़ में नृत्य की विभिन्न विधाएं है जो विभिन्न अवसरों पर किए जाते है। यहां हम निम्न नृत्य विधाओं पर च...

दंडकारण्य का पठार

दंडकारण्य का पठार दंडकारण्य का पठार  यह छत्तीसगढ़ के दक्षिण दिशा में है। यह छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक दृष्टि से सबसे अधिक समृद्ध प्रदेश है। इस क्षेत्र का क्षेत्रफ़ल 39060 वर्ग किलोमीटर है। यह छत्तीसगढ़ के कुल क्षेत्रफल का 28.91 प्रतिशत है। इस पठार  का विस्तार कांकेर ,कोंडागांव ,बस्तर ,बीजापुर ,नारायणपुर ,सुकमा जिला  तथा मोहला-मानपुर तहसील तक है।  इसका निर्माण धारवाड़ चट्टानों से हुआ है।  बीजापुर तथा सुकमा जिले में बस्तर के मैदान का विस्तार है। यहाँ की सबसे ऊँची चोटी नंदी राज (1210 मीटर ) है जो की बैलाडीला में स्थित है।   अपवाह तंत्र  यह गोदावरी अपवाह तंत्र का हिस्सा है। इसकी सबसे प्रमुख नदी इंद्रावती नदी है। इसकी लम्बाई 286 किलोमीटर है। इसका उद्गम मुंगेर पर्वत से होता है। यह भद्राचलम के समीप गोदावरी नदी में मिल जाती है। इसकी प्रमुख सहायक नदी नारंगी ,शंखनी -डंकिनी ,मुनगाबहार ,कांगेर आदि है।  वनस्पति  यहाँ उष्णकटिबंधीय आद्र पर्णपाती वन पाए जाते है। इस क्षेत्र में साल वृक्षों की बहुलता है इसलिए इसे साल वनो का द्वीप कहा जाता है। यहाँ उच्च स्तर के स...

छत्तीसगढ़ की भू-गर्भिक संरचना

  छत्तीसगढ़ की भू-गर्भिक संरचना   किसी भी राज्य मे पाए जाने वाले मिट्टी,खनिज,प्रचलित कृषि की प्रकृति को समझने के लिए यह आवश्यक है की उस राज्य की भौगोलिक संरचना को समझा जाए ।  छत्तीसगढ़ का निर्माण निम्न प्रकार के शैलों से हुआ है - आर्कियन शैल समूह  धारवाड़ शैल समूह  कड़प्पा शैल समूह  गोंडवाना शैल समूह  दक्कन ट्रैप शैल समूह  आर्कियन शैल समूह    पृथ्वी के ठंडा होने पर सर्वप्रथम इन चट्टानों का निर्माण हुआ। ये चट्टानें अन्य प्रकार की चट्टानों हेतु आधार का निर्माण करती हैं। नीस, ग्रेनाइट, शिस्ट, मार्बल, क्वार्टज़, डोलोमाइट, फिलाइट आदि चट्टानों के विभिन्न प्रकार हैं। यह भारत में पाया जाने वाला सबसे प्राचीन चट्टान समूह है, जो प्रायद्वीप के दो-तिहाई भाग को घेरता है। जब से पृथ्वी पर मानव का अस्तित्व है, तब से आर्कियन क्रम की चट्टानें भी पाई जाती रही हैं। इन चट्टानों का इतना अधिक रूपांतरण हो चुका है कि ये अपना वास्तविक रूप खो चुकीं हैं। इन चट्टानों के समूह बहुत बड़े क्षेत्रों में पाये जाते हैं।   छत्तीसगढ़ के 50 % भू -भाग का निर्माण...